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श्रीशान्तिनाथपुराणम् कृकवाकू परिज्ञाय जन्मान्तरमथात्मनः । व्यनाष्टा कर्मजं वैरं प्रत्याख्याय वपुश्च तौ ॥७२॥ तो भूतरमणाटव्यामभूतां भूतनायको । प्रमथौ प्रथिताचिन्त्य प्रभावपरिशोभितौ ॥७३॥ भक्त्या लोकान्तिकर्नत्वा देवर्धनरथोऽन्यदा। तपसः काल इत्युच्चैर्बोधितोऽबोधि च स्वयम् ॥७४॥ ततो मेघरये सूनो विन्यस्य स्वकुलश्रियम्। शिश्रिये स तपः श्रीमान् देवेन्द्रः कृतसक्रियः ॥७॥ मशेषमपि भूमारं यौवराज्यापदेशता । स प्रेम प्रथयामास संनियुज्यानुजेऽग्रजः ॥७६॥ प्राप्य मेघरथं भूतावन्यदा मेघवर्मना । प्राञ्जली प्रणिपत्यैवं मुदा वाचमवोचताम् ॥७७॥ तवोपदेशतो भद्र प्राप्नुवः स्मेहशीं गतिम् । प्रगति विपदामेतां चारचित्राकृति कृतात् ।।७।। पश्यावयोविमूढत्वं त्वत्तो लब्धात्मभावयोः । तव केनोपयोगत्वं यास्याव इति ताम्यतोः ॥७॥ कृतकृत्यस्य ते स्वामिन्किमावाभ्यां विधीयते । निदेशभृत्यसामान्यैस्तथाप्यनुगहारण नौ ॥२०॥ इत्यूरीकृत्य तौ पत्युः स्वं निवेध विरेमतुः । तत्कृतज्ञतया तुष्टो भूतावित्याह भूपतिः । ८१।। साधुः स्वार्थालसो नित्यं परार्थनिरतो भवेत् । स्वच्छाशयः कृतज्ञश्च पापभीरुश्च तथ्यवाक् ॥२॥
छोड़ दिया तथा शरीर का परित्याग कर वे भूतरमण नामक अटवी में भूतों के नायक और प्रसिद्ध अचिन्त्य प्रभाव से शोभित व्यन्तरदेव हुए ॥७२-७३।।
तदनन्तर किसी समय लौकान्तिक देवों ने भक्ति पूर्वक नमस्कार कर राजा घनरथ को यह कह कर संबोधित किया कि यह तप का उत्कृष्ट काल है। राजा घनरथ स्वयं भी बोध को प्राप्त हो रहे थे ॥७४।। तदनन्तर देवेन्द्रों के द्वारा जिनका सत्कार किया गया था ऐसे उन श्रीमान् राजा घनरथ ने वंश परम्परा की लक्ष्मी मेघरथ पुत्र के लिए सौंपकर तप धारण कर लिया ॥७५॥ अग्रज मेघरथ ने युवराज पद के बहाने समस्त पृथिवी का भार छोटे भाई दृढ़रथं के लिए सौंपकर प्रेम को विस्तृत किया ॥७६॥ . किसी अन्य समय दो भूत आकाश से मेघरथ के पास आये और हाथ जोड़ नमस्कार कर हर्ष से इस प्रकार के वचन कहने लगे ।।७७।। हे भद्र ! आपके किए हुए उपदेश से हम ऐसी इस गति को प्राप्त हुए हैं जो विपत्तियों का स्थान नहीं है तथा सुन्दर और आश्चर्यकारी है ।।७८।। आप से जिन्हें आत्मबोध प्राप्त हुआ है तथा किस कार्य के द्वारा हम आपके उपयोग को प्राप्त होंगे, ऐसा विचार कर जो निरन्तर दुखी रहते हैं ऐसे हम दोनों की विमूढता-अज्ञानता को आप देखें ।।७६।। हे स्वामिन् ! यद्यपि आप कृतकृत्य हैं-आपको किसी कार्य की इच्छा नहीं है अतः हम आपका क्या कर सकते हैं ? तथापि सामान्य सेवकों को जैसी आज्ञा दी जाती है वैसी आज्ञा देकर हम दोनों को अनुगृहीत कीजिये ॥८०॥ इस प्रकार राजा के लिये अपनी बात कहकर वे भूत चुप हो रहे । राजा मेघरथ उनकी कृतज्ञता से संतुष्ट होते हुए उनसे इस प्रकार कहने लगे ॥८१।। साधुजन-सत्पुरुष अपने कार्य में अलस, दूसरे के कार्य में निरन्तर तत्पर, स्वच्छ हृदय, कृतज्ञ, पापसे डरने वाला और सत्यवादी होता है ॥८२॥ जिनका चित्त सौहार्द से भरा हुआ है ऐसे आप लोगों के इस आगमन से ही अनुमान होता है
१तत्यजतः २व्यन्तर देवविशेषौः ३आकाशेन ४ अस्थानम् ।
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