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श्रीशांतिनाथपुराणम्
षट्खण्डमण्डलक्षोणीपालनाभ्यसनादिव । प्रयत्नात्पालयामास ' षड्विधां प्राणिसंहतिम् ॥ ११६ ॥ यथा प्रावत पाराच्यं नवभिर्निधिभिः पुरा । श्रुतैस्तपस्यता तेन तथैवा नवमैरपि ।। १२० ।। लोकानां स यथा पूज्यः साक्षाद्दण्डधरः पुरा । तथैव वीतदण्डोऽपि जातो जातदयार्द्रधीः ।। १२१ ।। तपसा जनितं धाम दधानोऽप्यतिभास्करम् । स निर्वाणरुचिश्चित्रमासीदासोदते हितः ।। १२२ ।। ज्ञात गुप्तिविधानोऽपि युक्त्या क्षपितविग्रहः । तपस्यन् राजसंमोहमरीरहदथात्मनः ।।१२३ ॥ अनुप्रेक्षासु " सुप्रेक्षः प्रसितो द्वादशस्वपि । स समाप्रतिमामस्थात् सिद्धाद्रौ सिद्धिलालसः ।।१२४ ॥ श्राराद्दावानलेनोच्चैस्तस्मिन्वलयितस्तपे' । त्यक्तेनापि प्रतापेन सेव्यमान इवाभवत् ।। १२५ ।। दिवा 'प्रावृषिजैर्मेधैरिन्द्रनीलघटैरिव । श्रभिषिक्तोऽप्यनुत्सिक्तश्चित्रमासीद् घनागमे ।। १२६ ।। कम्पकेनान्यलोकस्य शीतेनारिगणेन वा । कम्पनं तस्य नाकारि मेरोरिव नभस्वता " ।। १२७॥
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प्रयत्न पूर्वक छह प्रकार के प्राणिसमूह की रक्षा करते थे ।। ११६ || जिस प्रकार वे पहले नौ निधियों के द्वारा परहित में प्रवृत्ति करते थे उसी प्रकार तपस्या करते हुए भी उत्कृष्ट श्रुत के द्वारा पर हित में प्रवृत्ति करते थे || १२० ।। जिस प्रकार वे पहले साक्षात् दण्ड- राज्यशासन को धारण करते हुए लोगों के पूज्य थे उसी प्रकार अब वीत दण्ड- मन वचन काय की प्रवृत्ति रूप दण्ड से रहित होने पर भी लोगों के पूज्य थे । उनकी बुद्धि दया से आई थी ।। १२१|| दुखी प्राणियों का हित करने वाले वे मुनिराज यद्यपि तप से उत्पन्न हुए सूर्यातिशायी तेज को धारण कर रहे थे तो भी निर्वारण रुचिकान्ति रहित थे यह आश्चर्य की बात थी ( परिहार पक्ष में मोक्ष की रुचि से सहित थे) ।। १२२ ।। तपस्या करने वाले वे मुनिराज यद्यपि रक्षा की विधि को जानते थे और युक्ति पूर्वक उन्होंने विग्रहयुद्ध को नष्ट भी किया था तो भी उन्होंने अपने राजसं मोहं रजोगुण प्रधान मोह को अथवा राजसंमोह - राज के ममत्व को नष्ट कर दिया था । ( परिहार पक्ष में वे गुप्तियों के भेदों को अच्छी तरह जानते थे । और उन्होंने उपवास के द्वारा विग्रह - शरीर को कृश कर दिया था फिर भी राजसंबन्धी मोह से रहित थे ।। १२३ ।।
तदनन्तर जो सुविचार अथवा सुबुद्धि से युक्त होकर अनित्य आदि बारहों अनुप्रेक्षात्रों में संलग्न रहते थे तथा मुक्ति प्राप्त करने की लालसा रखते थे ऐसे वे मुनिराज सिद्धगिरि पर एक वर्ष का प्रतिमा योग लेकर खड़े हो गये || १२४ | | उस पर्वत पर ग्रीष्म ऋतु में वे निकटवर्ती प्रचण्ड दावानल से घिर जाते थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानों छोड़े हुए भी प्रताप के द्वारा सेवित हो रहे हों । भावार्थ - उन्होंने मुनिदीक्षा लेते ही प्रताप को यद्यपि छोड़ दिया था तो भी वह उनकी सेवा कर रहा था ।। १२५।। वर्षा ऋतु में आकाश, यद्यपि इन्द्र नीलमणि के घड़ों के समान वर्षा कालीन मेघों के द्वारा यद्यपि उनका अभिषेक करता था तो भी वे उत्सिक्त जलसे अभिषिक्त नहीं हुए यह आश्चर्य की बात है । परिहार पक्ष में उत्सिक्त गर्वयुक्त नहीं हुए थे ।। १२६ ।। जिस प्रकार अन्य
व्यापार:
१. पचस्थावरंकत्रसभेवेन षोढाम् ५ सुविचार: ६ संलग्न : १० न उत्सिक्तः अनुत्सिक्तः पक्षे गर्वरहितः
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२ उत्कृष्ट :
३ दण्डधारक
७ वर्षावधिकं प्रतिमा योगम् ११ वायुना ।
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शासकः ४ व्यपगतमनोवाक्काय ८ ग्रीष्मत & प्रावृट्कालोत्पन्न :
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