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________________ दशमः सर्गः तस्मात्संशयिताम्मावान् शास्वा ज्ञाननिषेरसौ। अनारमनीनमात्मानं निनिन्दानिन्वितस्थितिः ॥१०६।। प्राज्यसाम्राज्यसोल्यानि भुञानस्य महीभुजः । व्यतीयुस्तस्य पूर्वाणि पूर्वपुण्यात्सहमशः ॥११॥ एकदा तु समालम्ब्य शाममा मिनिबोषिकम् । सम्राजा चषे चित्तं चित्त जन्मोद्भवात्सुखात् ।।१११।। पृथा लोको निरालोकः क्लिपनाति विषयेच्छया। प्रात्माधीने सुखे सत्ये सत्यपि प्रशमोद्धये ॥११२ । इति निश्चित्य चक्रेशश्चके शास्तार"मात्मजम् । 'सहस्रांशुसमं धाम्ना स सहलायुधः भुवः ॥११॥ नत्वा क्षेमङ्कर सम्राट सतां क्षेमकरं जिनम् । दीक्षा दैगम्बरी भूपैस्त्रिसहत्र: महाग्रहीत् ॥११४।। सम्यगालोचिंताशेषकर्मप्रकृतिविस्तरः । स तपःस्थोऽप्यभूच्चित्रं क्षमापालनतत्परः ॥११५।। वृथा विहाय मां "रक्सा तपस्या स्वमुपायवाः । प्रीत्येवेति तमाश्लिष्यद्रजो व्याजेंन भूवः ॥११६।। साम्राज्येऽप्यय यस्यासीवेकमेव धनुः पुरा । तपोवनोऽपि सोऽधत्त चित्रं वविधं धनुः ॥११७॥ स यद्वच्छत्ररत्नस्य छायामणलमध्यगः । तद्वदम्लानशोभोऽभूवमिसूर्यमपि स्थितः ॥११॥ तथा सत्पुरुषों से पूजित अपने पौत्र कनकशान्ति की पूजा की ॥१०॥ अनिन्दित-प्रशस्त मर्यादा से युक्त राजाधिराज-चक्रवर्ती ने ज्ञान के भाण्डार स्वरूप कनकशान्ति से संशयापन्न पदार्थों को जानकर आत्महित न करने वाले अपने आप की बहुत निन्दा की ॥१०६।। पूर्वपुण्य से श्रेष्ठ साम्राज्य सुखों का उपभोग करते हुए राजा के हजारों पूर्व व्यतीत हो गये ।।११०॥ एकसमय वैराग्योत्पादक मतिज्ञान को प्राप्त कर चक्रवर्ती ने काम सख से अपना चित्त खींच लिया ॥११॥ वे विचार करने लगे कि प्रशमभाव से उत्पन्न होने वाले स्वात्माधीन सत्य सख के रहते हुए भी अज्ञानी मानव विषयों की इच्छा से व्यर्थ ही खेद उठाता है ॥११२॥ ऐसा निश्चय कर चक्रवर्ती ने अपने पुत्र सहस्रायुध को जो तेज से सूर्य के समान था पृथिवी का शासक बनाया ॥११३॥ और स्वयं सत्पुरुषों का कल्याण करने वाले क्षेमंकर जिनेन्द्र को नमस्कार कर तीन हजार राजाओं के साथ दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली ।।११४॥ जिन्होंने समस्त कर्म 'प्रकृतियों के विस्तार का अच्छी तरह विचार किया है ऐसे चक्रवर्ती-मुनिराज, तप में स्थित होते हुए भी क्षमापालनतत्पर-पृथिवी का पालन करने में तत्पर थे, यह आश्चर्य की बात थी (परिहार पक्ष में क्षमा गुण के पालन करने में तत्पर थे) ॥११५।। अपने राग से युक्त मुझे छोड़कर व्यर्थ ही तपस्या का आश्रय लिया है ऐसा कहती हई पृथिवी रूपी वधू धूलि के बहाने प्रीति पूर्वक मानों उनका मालिङ्गन ही कर रही थी॥११६।। जिनके पहले साम्राज्य अवस्था में भी एक ही धनुष था अब वे तपोधन–मुनि होकर भी दश प्रकार के धनुष को धारण करते थे यह आश्चर्य की बात थी। (परिहार पक्ष में उत्तम क्षमा प्रादि दश प्रकार के धर्म को धारण करते थे ।।११७।। वे जिस प्रकार छत्र रत्न के छाया मण्डल के मध्य में स्थित होकर उज्ज्वल शोभा से युक्त रहते थे उसी प्रकार सूर्य के सन्मुख खड़े होकर भी उज्ज्वल शोभा से युक्त थे ॥११८॥ उन्हें छह खण्ड के भूमण्डल की रक्षा का अभ्यास था, इसीलिये मानों वे १पदार्थान् २ अनात्महितकरम् ३ वैराग्योत्पादकं मतिज्ञानं ४ कामोत्पन्नात् ५ रक्षकम् ६ सूर्यसंनिभम् ७ एतन्नामधेयं विदेहस्थतीर्थकरम् ८ कल्याणकरम् | पृथिवीपालनतत्परः पक्षे क्षान्तिपालनतत्परः १० अनुरागयुक्तां ११ धुलिच्छमना १२ कोदण्डम् १३ धर्मम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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