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________________ १३३ दशमः सर्गः नूनं वनलताव्याजमादायेव स पनया' । जन्मान्तरोपभोगाय पर्युपास्यत् पादयोः ॥१२८॥ इति तत्र तपस्यन्तं तमालोक्य महासुरी । उपेयतुरतिक्रोधादतिवीर्यमहाबलौ ॥१२६।। प्रश्वग्रीवस्य यौ पुत्रौ तेनास्तौ२ पञ्चमे भवे । प्रावर्ततां ततस्तस्य ताबुज्जासयितु रिपू ॥१३०॥ तत्पूजनार्थमायान्त्यौ वीक्ष्य रम्भातिलोत्तमे। असुरो ससुरातो बावजुक्तां द्रुतम् ॥१३१।। त्रि:परीत्यतमभ्यर्च्य दिव्यगन्धादिभिर्मु निम् । तदङ्गभ्यो लतावेष्टमास्थया' ते निरास्थताम् ।।१३२॥ इति वात्सरिक योग५ निर्वाति विवजितः ।प्रभादुपोढकल्याणः स विसोढपरीषहः ॥१३३॥ पितुः सुदुष्करां श्रुत्वा तपस्यां तद्गुणोत्सुका । राज्यं प्रीतिकरे सूनो त्वं सहस्रायुधो न्यधात ॥१३४॥ पिहितात्रवमानम्य स संजातशुमालवः। दीक्षां महीभृतां वर्षे रादत्तार्यातयः समम् ।।१३।। 'अधिसिद्धाद्रि विधिवत्यक्त्वा वज्रायुधस्तनुम् । प्रधाविष्टोपरिस्वर्ग भरणाद् नैवेयकं यतिः ।।१३६।। शान्तभावोऽप्यभून्नाम्ना श्रीमानमितविक्रमः । 'एकत्रिंशत्समुद्रायुः स तत्र त्रिदिवेश्वरः ॥१३७॥ लोगों को कम्पित कर देने वाली वायु के द्वारा मेरु पर्वत का कम्पन नहीं किया जाता उसी प्रकार अन्य लोगों को कम्पित कर देने वाली शीत लहर अथवा शत्रु समूह के द्वारा उनका कम्पन नहीं किया गया था ।।१२७।। ऐसा जान पड़ता था मानों वनलताओं का बहाना लेकर लक्ष्मी ही जन्मान्तर के उपभोग के लिये उनके चरणों की उपासना कर रही थी ॥१२८।। इस प्रकार तपस्या करते हुए उन मुनिराज को देखकर तीव्र क्रोध से अतिवीर्य और महाबल नामके महान् असुर उनके समीप आये ।।१२६।। अश्वग्रीव के जो दो पुत्र पञ्चम भव में चकवर्ती के द्वारा मारे गये थे वे ही महान असुर हुए थे । तदनन्तर वे दोनों शत्रु उन मुनिराज का घात करने के लिये प्रवृत्त हुए ॥१३०।। उसी समय रम्भा और तिलोत्तमा नामकी दो अप्सराएँ उन मुनिराज की पूजा के लिये देवों तथा साज सामग्री के साथ आ रही थीं उन्हें देखकर वे असुर शीघ्र ही भाग गये ॥१३१।। उन अप्सराओं ने तीन प्रदक्षिणाएं देकर उन मुनिराज की दिव्यगन्ध आदि से पूजा की और श्रद्धा पूर्वक उनके शरीर से लताओं का वेष्टन दूर किया ॥१३२।। इस प्रकार जो पीड़ा से रहित थे, कल्याण से युक्त थे तथा परिषहों को जीतने वाले थे ऐसे वे मुनिराज एक वर्ष का प्रतिमायोग समाप्त कर सुशोभित हो रहे थे ॥१३३॥ पिता की अत्यन्त कठिन तपस्या को सुनकर उनके गुणों में उत्सुक होते हुए तुम सहस्रायुध ने अपने पुत्र प्रीतिकर के लिए राज्य भार सौंप दिया ॥१३४॥ तथा शुभास्रव से युक्त हो उत्तम अभिप्राय वाले अनेक श्रेष्ठ राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली ।।१३५।। वज्रायुध मुनिराज सिद्धगिरि विधि पर्वक शरीर का परित्याग कर क्षण भर में स्वर्गों के ऊपर उपरिम वेयक में जा पहंचे ।।१३६।। वहां वे शान्तभाव से सहित होते हुए भी नाम से अमितविक्रम थे, लक्ष्मी सहित थे, इकतीस सागर की आयु से सहित थे तथा देवों के स्वामी-अहमिन्द्र थे ।।१३७।। पर। १ लक्ष्म्या २ नाशितो ३ हिंसितुम् ४ श्रद्धया ५ एकवर्षव्यापिनं योग ध्यानं ६ पीडाविरहित ७ सिद्धाद्रौ इति, अधिसिद्धाद्रिः सिद्धपियु परि ८ एकत्रिंशत्सागरप्रमाणायुष्कः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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