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________________ १२८ इति तत्र समें ताभ्यां विजहार हरम्मनः । - श्री शान्तिनाथपुराणम् तत्रत्यमनवेatri स्वस्मिन्नपितचक्षुषाम् ॥८०॥ ( एकादशभिः कुलकम् ) अन्यत्र मुनिमक्षिष्ट निविष्टं मौक्तिकोपले । भूमिष्ठे मुक्तिदेशे वा वरिष्ठं यमिनां गुलैः ॥८१॥ १ नन्नम्यमानः पप्रच्छ स्वहितं तं प्रपद्य सः । तपोऽम्धिरित्यसो तस्मै बचो वक्तु प्रचक्रमे ॥८॥ प्रविद्यारागसंक्लिष्टो "बंभ्रमीति भवान्तरे । विद्यावैराग्यसंयुक्तः सिद्धघत्यविकल स्थितिः ॥ ६३ ॥ प्रारमऩीनमतः कार्यं तत्वावहितचेतसा । जैनं विश्वजनीनं हि शासनं दुःखनाशनम् ॥८४॥ इति संक्षिप्ततश्वेन विपुलो दचसा हितम् । मुनिनिवेदयामास तस्मै संप्राप्तबोधये ।।५।। संसृतेः स परं ज्ञात्वा दोः 'स्थ्यं सौस्थ्यं च निर्वृतेः । तस्मात्तपोभृतः प्राभूत्संयतः संयतात्मनः ॥८६॥ 'प्रियजानिरपि क्रीडन् यतेराकस्मिकेक्षणात् । 'उपायत तपोलक्ष्मों भव्यता हि बलीयसी ॥८७॥ तत्प्रीत्यैव ततो देव्यावां ददाते तपः परम् । गरिणन्या: सुमतेमूले गम्यमान गुणोदये ॥ ८८ ॥ की लगाकर देखने वाली वहां की वन देवियों के मन को हरण करता हुआ वह उन प्रियाओं के साथ क्रीड़ा कर रहा था ॥ ८० ॥ उसी कनकशान्ति ने वहां किसी अन्य जगह मोतियों की शिला पर विराजमान मुनिराज को देखा । वे मुनिराज ऐसे जान पड़ते थे मानों पृथिवीपर स्थित मुक्ति क्षेत्र में ही विराजमान हों तथा गुणों के द्वारा मुनियों में श्र ेष्ठ थे ॥ ८१ ॥ कनकशान्ति ने पास जाकर बार बार नम्रीभूत हो उनसे श्रात्महित पूछा -हे भगवन् ! मेरा हित कैसे हो सकता है ? यह पूछा । तत्पश्चात् तप के सागर मुनिराज उसके लिये इसप्रकार वचन कहने के लिए उद्यत हुए ||२|| अज्ञान और राग से संक्लिष्ट रहने वाला प्राणी संसार के भीतर कुटिल रूप से भ्रमरण करता है और विद्या तथा वैराग्य से युक्त प्राणी प्रखण्ड मर्यादा का धारी होता हुआ सिद्ध होता है ||८६३|| इसलिए तत्त्वों में चित्त लगाकर तुम्हें आत्म - हिंतकारी कार्य करना चाहिये क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् का सर्वजन हितकारी शासन दुःखों का नाश करने वाला है ।। ८४ ।। इस प्रकार उन विपुल मुनिराज ने आत्मबोध को प्राप्त करने वाले उस कनकशान्ति के लिए संक्षिप्त रूप से तत्वों का विवेचन करने वाले वचनों के द्वारा हित का उपदेश दिया ॥ ८५ ॥ कनकशान्ति, उन तपस्वी मुनिराज से संसार का दुःख और मोक्ष का सुख जानकर संयमी बन गया || ८६ ।। क्रीड़ा करता हुआ कनकशान्ति यद्यपि स्त्रियों से बहुत प्रेम करता था तथापि उसने अकस्मात् दिखे हुए मुनिराज से तपोलक्ष्मी को स्वीकृत कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि भवितव्यताहोनहार बलवती होती है ।। ८७ ।। तदनन्तर उसकी प्रीति से ही दोनों देवियों ने उत्तम गुणों के 7 'युक्त सुमति गणिनी के समीप उत्कृष्ट तप को स्वीकृत कर लिया ॥८८॥ | वह बाघ और उदय उद्य पुनरतिशयेन वा नमन् २ तपः सागरः ३ तत्परो बभूव ४ कुटिलं भ्रमति यङ्लुगन्तः प्रयोग: ५ समस्तजन सरम् ६ संसृतेः दौस्थ्यं दुःखम् ७ निर्वृतेः मोक्षस्य सौस्थ्यम् सुखम् ८ प्रिया जाया यस्य तथाभूतोऽपिसन् स्वीचकार १० देव्यौ आददाते इतिच्छेद: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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