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________________ दशमः सर्गः १२६ बाह्याभ्यन्तरनैःसङ्गमङ्गीकृत्य निरन्तरम् । तपस्यन् ददृशे तेन हिमचूलेन विद्विषा ||८|| विद्यानिर्मित नारी मिथिरूपेरपि कौरणपैः' । प्रत्यूहं तपसस्तस्य कर्तुं प्रववृते स्वा ॥ ६०॥ तस्मिन्रायमाणं तं चरणो वीक्ष्य कश्चन । वेगाद्विद्रावयामास साधुगृहयो भवेन्न कः ॥ ६१ ॥ सपूर्वाध्यानुपूर्व्या स द्वादशाङ्गान्यसंगतः । प्रध्यैष्ट कालशुद्धघादिसहितः स्वहितोचतः ॥९२॥ तपःस्थिति दधानोऽपि महतीमन्यदुर्धराम् । चित्रमा चारनिष्णातश्चित्तात्तृष्णां निराकरोत् ॥९३॥ रेजे घनागमोत्कण्ठो नीलकण्ठ' इवानिशम् । धन्वोवाधिगुणं" "धर्म व स्वभ्यस्तमार्गसः ॥४।। प्रशस्त 'यतिवृतानां प्रवक्ता सत्कविर्यया । श्रभवद्वीतरागोऽपि भूवराग' कलङ्कितः ।। ६५॥ एकाकी विहरन् देशानीर्यापर्णाविर्वाजतान् । जातु मासमुपोष्यासौ प्रायाद्रत्नपुरं पुरम् । ६६ ।। तस्येशो धृतिषेरणास्यस्तं दृष्ट्वा पात्रमागतम् । श्रद्धाविगुणसंपन्नः पयसा "समतर्पयत् ॥६७॥ ۹ भीतर निर्ग्रन्थ अवस्था को स्वीकृत कर निरन्तर तप करने लगा। उसी समय उसे हिमचूल नामक शत्रु ने देखा || || हिमचूल, क्रोध से विद्याओं द्वारा निर्मित स्त्रियों तथा भयंकर राक्षसों के द्वारा उसके तप में विघ्न करने के लिये उद्यत हुआ ।। ६० । उन मुनिराज के ऊपर पैर करने वाले उस हिमचूल को देखकर किसी धरणेन्द्र उसे शीघ्र ही भगा दिया सो ठीक ही है क्योंकि कौन मनुष्य साधु के द्वारा ग्राह्य नहीं होता ? अर्थात् सभी होते हैं ||१|| कालशुद्धि आदि से सहित तथा श्रात्म हित के लिये प्रयत्नशील उन एकाकी मुनिराज ने क्रम से पूर्व सहित द्वादशाङ्गों का अध्ययन किया ॥२॥ आचार निपुण मुनिराज ने अन्य मनुष्यों के लिये दुर्धर तप की स्थिति को धारण करते हुए भी चित्त से तृष्णा को दूर कर दिया था, यह आश्चर्य की बात थी || १३ || जिस प्रकार मयूर निरन्तर घनागमोत्कण्ठ – मेघों के आगमन में उत्कण्ठित रहता है उसी प्रकार मुनिराज भी निरन्तर घनागमोत्कण्ठ – (घना आगमे उत्कण्ठायस्य सः) आगम विषयक तीव्र उत्कण्ठा से सहित थे और जिस प्रकार स्वभ्यस्तमार्गणः- अच्छी तरह वारणों का अभ्यास करने वाला धनुर्धारी मनुष्य अविगुणंडोरी से सहित धर्म - धनुष को धारण करता है उसीप्रकार स्वभ्यस्तमार्गणः - अच्छी तरह गति आदि मार्गणाओं का अभ्यास करने वाले उन मुनिराज ने अधिगुरणं - अधिक गुणों से युक्त धर्मउत्तम क्षमा आदि धर्म को धारण किया था || १४ || जिस प्रकार उत्तम कवि प्रशस्तयति - निर्दोश विश्राम स्थानों से युक्त वृत्तों - छन्दों का प्रवक्त - श्रेष्ठ व्याख्याता होता है उसी प्रकार वे मुनि भी प्रशस्त - निरतिचार यतिवृत्त-मुनियों के आचार के श्रेष्ठ वक्ता थे तथा वीतराग-राग रहित होकर भी भूपराग–राजाओं सम्बन्धी राग से कलङ्कित थे ( परिहार पक्ष में भू-पराब-पृथिवी श्री से मलिन शरीर थे ।।१५।। किसी समय एक मास का उपवास कर वे मुनिराज कि देशों एकाकी विहार करते हुए रत्नपुर नगर पहुंचे || १६ || पात्र को प्राया देख श्रद्धा गुणों से १ राक्षसः २ विघ्नं ३ वैरायते इति वैरायमाणः तम् ४ मयूर इव ५ गुणसहितं ६ धनुः पक्षे उत्तमक्षमा दिधर्मम् ७ वारणाः गत्यादि मार्गणाश्च ८ प्रशस्त तानि प्रशस्तयतीति । तथाभूतानिवृत्तानिछन्दांसि तेषां पक्षे प्रशस्त मुनिचारित्राणां गोधूलि भूपरागः १० दुग्धेन ११ संतृप्तं चकार । १७ Jain Education International पक्षे प्रशमादि विश्रामस्थानं येषु स्यरागः पक्षेभुवः परा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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