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________________ दशमः सर्गः १२७ मन्येद्यः सिविधाको 'रम्योद्देशविक्षया । अभ्रंकषाप्रमगमत्तालेयानि प्रियासखः ॥७॥ मतानुयातमुचित्य विशन्सुमनसो मुदा । स निविशेषमायच्छंस्तयोः सुमनसः स्थितिम् ॥७१॥ प्रयत्नरसिामोरपुष्पशय्यासमन्वितान् । निकपा प्रियमाणोऽपि ताम्यां भ्राम्यल्लतालयान् ॥७२॥ वसाभिः प्रलयाहत्तापल्लवानबहेलया। भादवानं तयोः सोपं यूधनाथं निदर्शयन् ।।७३॥ उत्सुत्योत्प्सुत्य गच्छन्तं मुहुर्वायुवताम्मगा। रमण्योनिविंशग्नाराद्वनश्रीकन्दुकोपमम् ।।७४।। किनराणामधापर्व गोति पीत विशालः। तत्प्रयोगसमं किश्चिद गायंस्ताम्यां प्रचोदितः ॥७॥ सेव्यमानः सुखस्पर्शमन्धमन्वं समीरणः । तत्प्रियालकविन्यासविक्षोभारेकितरिव ॥७६।। सरस्यां नलिनीपत्रः क्षरणं वाच्छाबिते प्रिये । विमुहयन्त्यास्तयोः प्रेम कलयन् कोकयोषितः ॥७॥ स्फटिकोपलसंक्रान्तलतां कुसुमवाञ्छया । मुग्धत्वेनोपयान्त्यो ते स्मित्वा स्मित्वावबोधयन् ।।७८॥ नद्यवस्कन्दमालोक्य विक्रमा हसयोषितम् । मन्वानो विजिति तस्याः स्ववधूगतिविभ्रम। ॥७॥ कनकशान्ति किसी अन्य समय अपनी स्त्रियों के साथ सुन्दर स्थान देखने की इच्छा से गगनचुम्बी अग्रभाग से युक्त हिमालय पर्वत पर गया ॥७०॥ एक लता से दूसरी लता के पास जाता हुअा तथा हर्ष से फूल तोड़कर उन दोनों स्त्रियों को समान भाव से देता हुआ वह अपने शुभ हृदय की स्थिति को प्रकट कर रहा था । भावार्थ-दक्षिण नायक की तरह वह दोनों स्त्रियों के प्रति समान प्रेमभाव प्रकट कर रहा था ।।७।। उन स्त्रियों के द्वारा रोके जाने पर भी वह प्रयत्न के बिना ही बनी हई सुगन्धित फूलों की शय्याओं से सहित लतागृहों के समीप घूम रहा था ।।७२॥ हथिनियों के द्वारा प्रेम से दिये हुए पल्लवों को उपेक्षा भाव से ग्रहण करने वाले मदोन्मत्त यूथपति को वह अपनी प्रियाओं के लिए दिखा रहा था ।।७३।। जो वायु के वश बार बार उछल उछल कर जा रहा था तथा वन लक्ष्मी की गेंद के समान जान पड़ता था ऐसे समीपवर्ती मृग को वह अपनी प्रियाओं के लिए दिखा रहा था ॥७४॥ वह कनकशान्ति स्वयं संगीत में निपुण था इसलिए किन्नरों का गान सुनकर स्त्रियों के द्वारा प्रेरित होता हुआ अभिनय के साथ कुछ कुछ गा रहा था ७५।। उन स्त्रियों के केश विन्यास के क्षोभ से शङ्कित-भयभीत हुए के समान धीरे धीरे चलने वाली सुखद वायु उसकी सेवा कर रही थी॥७६|| सरसी में कमलिनी के पत्तों से चकवा क्षणभर के लिए आच्छादित हो गया-छिप गया इसलिए उसके विरह में चकवी मूच्छित हो गयी । कनकशान्ति अपनी प्रियाओं के लिए चकवी का वह प्रेम दिखला रहा था ॥७७।। स्फटिक मरिण में एक लता प्रतिबिम्बित हो रही थी। उसके फूल तोड़ने की इच्छा से भोलेपन के कारण दोनों स्त्रियां उसके पास जाने लगीं। कनकशान्ति हँस हँस कर उन्हें यथार्थता से अवगत कर रहा था ॥७८।। कोई एक हंसी आगे नदी के विस्तार को देखकर खड़ी हो गयी थी। कनकशान्ति ने उसे देख ऐसा समझा मानों यह हं गरी स्त्रियों की सुन्दर चाल से पराजित होकर ही खड़ी हो गयी है ।।७।। इस प्रकार अपक्ष प्रस् १ रमणीयस्थानदर्शनेच्छया २ समीपे ३ करिणीभिः ४ गजसमूहाधिपम् ५ चक्रवाक्यो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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