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________________ १२६ श्रीशान्तिनाथपुराणम् तयोः सम्बन्धमित्युक्त्वा भूपेन्द्रो व्यरमत्ततः । तं प्रपूज्य जिनाम्यणे निर्व्याजास्ते प्रवव्रजुः ॥६०॥ तत्रास्ति विजयात्रिौ नगरं शिवमन्दिरम् । विभुनभःसां नाम्ना मेरुमाली तवावसत् ॥६१।। नाम्ना तस्य महादेवी विमला विमलाशया। धृताशेषकला 'राकाचन्द्रमूतिरिवाभवत् ॥६२॥ तयोः काञ्चनमालाख्या पुत्री सरकाञ्चनप्रभा । जाता त्रिजगतां कान्तेः प्रसिधिरंभिदेवता ॥३॥ विधिना मेरुमाली तां स चक्रधर गौरवात् । तत्क्षमायापित प्रीत्या सुतां कनकशान्तये ॥६४।। रक्षन्पृथुकसाराख्यं नगरं स्वभुजोजसा । जयसेनोऽभवत्खेटस्तज्जायाथ जयाभिधा ॥६॥ तयोरपि तनूजाया वसन्तश्रीसमाकृतेः । पाणि वसन्तसेनायाः सोऽग्रहीद्विधिपूर्वकम् ॥६६॥ तस्याः पैतृण्वन योऽय हिमचूलो नभश्चरः। तताम तामनासाद्य व्यर्थीभूतमनोरथः ॥६७॥ तस्मिन्वसन्तसेनायाः पत्यावपचिकोर्षया । सोऽन्तनिगूढकोपोऽभूद्धस्मच्छन्नाग्निसन्निभः ॥६॥ यथामिरासमारामक्रीडापर्वतकादिषु । तान्यां मनोभिरामाभ्यां रामाभ्यामलसत्समम् ॥६६॥ ऐसी है ॥५६।। इस प्रकार उन दोनों के सम्बन्ध कह कर राजा चुप हो गया। और वे सब उसकी पूजा कर निश्छल हो जिनेन्द्र भगवान् के समीप दीक्षित हो गये ॥६०॥ . उसी विजयाध पर्वत पर एक शिव मन्दिर नामका नगर है। उसमें विद्याधरों का राजा मेरुमाली निवास करता था ।।६१।। उसकी निर्मल अभिप्राय वाली विमला नाम की महारानी थी । समस्त कलाओं से युक्त वह महारानी ऐसी जान पड़ती थी मानों पूर्णिमा के चन्द्र की मूर्ति ही हो ॥६२।। उन दोनों के उत्तम सुवर्ण के समान आभावाली काञ्चनमाला नाम की पुत्री हुई । वह काञ्चनमाला तीनों जगत् की कान्ति की प्रकृष्ट सिद्धियों से युक्त अधिष्ठात्री देवी थी ॥६३॥ मेरुमाली ने चक्रवर्ती के गौरव से वह पुत्री उसके योग्य कनकशान्ति के लिये प्रीतिपूर्वक दी ॥६४।। तदनन्तर अपनी भुजाओं के प्रताप से पृथुकसार नगर की रक्षा करने वाला एक जयसेन नामका विद्याधर था। उसकी स्त्री का नाम जया था ॥६५।। उन दोनों की वसन्त सेना नामकी पुत्री थी। वसन्त सेना वसन्त लक्ष्मी के समान आकृति को धारण करने वाली थी। कनकशान्ति ने इस वसन्त सेना का भी विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।।६६।। उस वसन्तसेना की बुअा का लड़का हिमचूल विद्याधर था। वह उसे विवाहना चाहता था परन्तु कनकशान्ति के द्वारा विवाही जाने पर उसका व्यर्थ हो गया अतः वह वसन्तसेना को न पाकर बहत दुखी हा ॥१७॥ हिमचल विद्याधर वसन्तसेना के पति कनकशान्ति का अपकार करने की इच्छा से भीतर ही भीतर क्रोध को छिपाये रखता था । इसलिये वह भस्म से आच्छादित अग्नि के समान जान पड़ता था ॥६॥ कनकशान्ति, अपनी दोनों सुन्दर स्त्रियों काञ्चनमाला और वसन्तसेना के साथ इच्छानुसार उद्यान तथा क्रीडागिरि आदि पर क्रीड़ा करता था ॥६६॥ जिसे विद्याएं सिद्ध है ऐसा वह २ स्वकीयबाहुप्रतापेन ३ जयेतिनामधेया ४ पितृष्वसुरपत्यं पुमान् १ पूर्णिमाचन्द्रविम्बमिव पैतृष्वस्र यः ५ अपकर्तुमिच्छया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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