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________________ १२५ दशमः सर्ग: रूप्यास्त्तरश्रेण्या सुकच्छाविषयस्थितः। अस्ति 'काञ्चनशब्दादितिलकारव्यं पुरं महत् ॥४८।। महेन्द्रस्तस्य नाथोऽभून्महेन्द्रसदृशः श्रिया। राशी पवनवेगेति तस्य चाख्यातिमीयुषी ।।४६॥ भूत्वा बत्तस्तयोः सूनुरयं स स्वनिदानतः। प्रशास्त्यजितसेनाख्यो विजयाद्ध मशेषतः ॥५०॥ स चाग्यवारसक्तोऽपि राजसूनुर्यदृच्छया । वासितायाः कृते युद्ध वृषयोरेक्षताल्या ॥५१।। एकेनान्यस्य जठरं शृङ्गाग्रेण बलीयसा। व्यदार्यताचिरानिर्यदन्त्रमाला कुलीकृतम् ॥५२॥ पतस्याः पतिर्भोरुन भविष्यच्च दुर्बलः। अकरिष्यन्ममाप्येवं बध्याविति स तत्क्षणे ॥५३॥ विषयान्धीकृता नूममिहामुत्र च देहिनः । प्राप्नुवन्ति परं दुःखमिति निविवेवे भवात् ॥५४।। प्रपद्य प्रियधर्मारणं यति भूत्वा तपोधनः। गान्नलिनकेतुः स प्रशान्तः शाश्वतं पदम् ॥५५।। प्रियङ्करा प्रियापायहिमम्लानमुखाम्बुजा । सा सुस्थितायिकावाक्याच्चान्द्रायण"मवर्तयत् ॥५६॥ जाता शान्तिमती सेयमिमा दत्तोऽन्यबुद्रुवत् । मेच्छन्तीमध्ययं रागावहो कामा: सुदुस्त्यजा। ॥५७॥ परां मुक्तावलीमेषा तपस्यन्त्यपि बिभ्रती। ईशाने पुंस्त्वमभ्येत्य भविष्यति सुरोत्तमः ॥१८॥ ततोऽवतीर्य निर्धूतकर्माष्टक निबन्धनः। वेवः प्रपत्स्यते सिद्धिमस्या भव्यत्वमीदृशम् ॥५६।। सुकच्छा देश में स्थित विजयार्धपर्वत की उत्तर श्रेणी में एक काञ्चनतिलक नामका बड़ा भारी नगर है ॥४८॥ उस नगर का राजा महेन्द्र था जो लक्ष्मी से इन्द्र के समान था। उसकी रानी का नाम पवनवेगा था ।।४६ ।। वह दत्त अपने निदान से उन दोनों के अजितसेन नामका यह पुत्र हुआ है तथा संपूर्ण विजयाद्ध पर्वत का शासन कर रहा है ॥५०॥ उधर राजपुत्र नलिनकेतु यद्यपि परस्त्री में आसक्त था तो भी एक दिन उसने स्वेच्छा से एक गाय के लिये दो बैलों का युद्ध देखा ॥५१।। एक अत्यन्त बलवान् बैल ने सींग के अग्रभाग से दूसरे बैल का उदर विदीर्ण कर दिया जिससे वह शीघ्र ही निकलती हई प्रांतों के समह से प्राकलित हो गया ॥५२॥ उस घायल बैल को देखकर नलिन केतु तत्काल ऐसा विचार करने लगा कि इस प्रियंकरा का पति भीरु और दुर्बल नहीं होता तो मेरी भी ऐसी दशा करता ॥५३॥ निश्चित ही विषयान्ध मनुष्य इस लोक और परलोक में भारी दुःख प्राप्त करते हैं। ऐसा विचार कर वह संसार से विरक्त हो गया ।।५४।। नलिनकेतु प्रियधर्मा मुनि के पास जाकर तपस्वी हो गया और अत्यन्त शान्त चित्त होता हुआ मोक्ष को प्राप्त हुआ ॥५५॥ पति के विरह रूपी तुषार से जिसका मुख कमल म्लान हो गया था ऐसी प्रियंकरा ने सुस्थिता नामक आर्यिका के कहने से चान्द्रायण व्रत किया ॥५६।। वही प्रियंकरा मर कर यह शान्ति मती हुई है। यह दत्त भी जो अब अजितसेन हुआ है रागवश न चाहने पर भी इस शान्तिमती के पास गया था। पाश्चये है कि काम बड़ी कठिनाई से छूटता है ।।५७।। यह शान्तिमती श्रेष्ठ मूक्तावली व्रत को धारण करती हुई तपस्या करेगी और ईशान स्वर्ग में पुरुषपर्याय को प्राप्त कर उत्तम देव होगी ॥५८।। वहां से अवतीर्ण होकर वह देव अष्टकर्मों के बन्धन को नष्ट कर मुक्ति को प्राप्त होगा। इसकी भव्यता ही १ काञ्चनतिलकम् २ निविण्णोऽभूत् ३ नित्यं स्थानं, मोक्ष मित्यर्थः ४ प्रियस्य पत्युरपायो विरह एव हिमं तुषारस्तेन म्लानं मुखाम्बुजं मुखकमलं यस्याः सा ५ कवलचान्द्रायणव्रतम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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