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श्रीशान्तिनाथपुराणम् तत्र विन्ध्यपुरं नाम पुरं 'सुरपुरोपमम् । विद्यते रक्षिता' तस्य विन्ध्यसेनोऽमवन्नृपः ।।३।। देवी सुलक्षणा' तस्य नाम्नापि च सुलक्षणा । सूनुर्नलिनकेत्वारव्यस्तयोतिः स्मरातुरः ॥३९॥ तत्र धर्मप्रियो नाम परिणजामग्रणीरभूत् । स्यातस्तद्धर्मपत्नी व धीवत्ता श्रीरिवापरा ॥४०॥ अभिरूपः सुरुवाच 'ज्यायान्वतस्तयोः सुतः। प्रजनि स्वजनानन्दी प्रश्रयाश्रितमानसः ॥४॥ पिता संयोजयामास यथाविधि विधानवित् । तं प्रियंकरया साधं समानकुलरूपया ॥४२॥ कदाचिद् विहरम्ती तामासेचनक दर्शनाम् । ददर्श तत्पुरोधाने राजसूनुः सखीवृताम् ॥४३॥ तामालोक्य जगत्सारां केवलं म विसिस्मिये। मनसा मदनावस्थामतिभूमि' च शिश्रिये ॥४४॥ प्रङ्गीकृत्यायशोमार तामुपायच्छते स्म सः। "अपरागस्ततो भूपः सरागादप्यमूद्भुवि ॥४॥ स दसस्तद्वियोगातः पितृभ्यां विघृतोऽपि सन् । रुद्राशयः सुभद्रस्य मुनेमू लेऽग्रहीतपः ।।४६।। तपस्यखातुचिद्वीक्ष्य खेचरेन्द्रस्य संपदम् । 'उन्मनायन्ननात्मज्ञो निदानमकृतात्मनः ॥४७॥
उस देश में स्वर्ग के समान विन्ध्यपुर नामका नगर है। विन्ध्यसेन नामका राजा उसका रक्षक था ॥३८॥ उस राजा की सुलक्षणा–अग्छे लक्षणों से सहित सुलक्षणा नामकी स्त्री थी उन दोनों के नलिन केतु नामका पुत्र हुआ जो सदा काम से आतुर रहता था ॥३६।। उसी नगर में धर्मप्रिय नामका श्रेष्ठ वणिक रहता था। उसकी स्त्री का नाम श्रीदत्ता था जो मानों दूसरी लक्ष्मी ही थी ॥४०॥ उन दोनों के दत्त नामका ज्येष्ठ पुत्र हुआ जो माता पिता के अनुकूल था सुन्दर था, कुटुम्बीजनों को आनन्दित करने वाला था तथा विनय से युक्त चित्त वाला था ।।४१।। लोकरीति के ज्ञाता पिता ने विधिपूर्वक उसे समान कुल तथा समान रूप वाली प्रियंकरा कन्या के साथ मिलाया ॥४२।।
जिसके देखने से कभी तृप्ति नहीं होती थी ऐसी वह कन्या कभी सखियों के साथ उस नगर के उद्यान में विहार कर रही थी उसी समय राजपुत्र-नलिन केतु ने उसे देखा ॥४३॥ जगत सारभूत उस कन्या को देख कर न केवल वह आश्चर्य करने लगा किन्तु मन से उसने बहुत भारी कामावस्था का भी आश्रय लिया। भावार्थ-उस कन्या को देखकर वह मन में अत्यधिक काम से पीड़ित हो गया ।।४४।। उसने अपकीति का भार स्वीकृत कर उसे बलपूर्वक ग्रहण कर लिया । राजा यद्यपि पुत्र से बहुत राग करता था परन्तु इस घटना से पृथिवी पर वह पुत्र सम्बन्धी राग से रहित हो गया ॥४५॥ प्रियंकरा का पति दत्त उसके वियोग से बहुत दुखी हुआ। माता पिता ने यद्यपि उसे रोका तो भी उस रुद्रपरिणामी-कठोर हृदय ने सुभद्र मुनिराज के समीप तप ग्रहण कर लियादीक्षा ले ली ॥४६।। तपस्या करते हुए उसने किसीसमय विद्याधर राजा की संपदा देखी । देख कर वह उस संपदा के लिए उत्सुक हो गया। फल स्वरूप उस अज्ञानी ने अपने लिए उस संपदा का निदान कर लिया ।।४७।।
१ स्वर्गसदृश्यम् २ रक्षकः ३ सुष्ठु लक्षणानि यस्याः सा ४ एतन्नामधेया ५ अनुकूल: ६ ज्येष्ठः ७ विधिज्ञः ८ आसेचनकं अतृप्तिकरंदर्शनं यस्याः ताम् 'तदासेचनक तृप्तेर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शमात्' ६ अत्यधिकाम् १० स्वीचक्रे ११ अवगतो रागोयस्य सः रागरहित: १२ उत्सुको भवन् १३ अकृत+आत्मनः इतिच्छेद : ।
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