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नवमः सर्ग।
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* शार्दूलविक्रीडितम् * इत्यं धर्मकयोचतोऽपि सततं राज्यस्थिति च क्रमास
'तन्त्रावापविशारदैरधिकृतां संवर्धयन्मन्त्रिभिः । अन्तःस्नेहरसा या मुगदृशामालोक्यमानो दृशा
कामानप्यविरुद्धमेव स विभुर्धर्मार्थयोः शिश्रिये ॥१५७।। द्वष्यं राजकमप्यशेवमभवदूर्जस्वलं च स्वयं ..
वत्स्य॑च्चक्रभियेव तस्य पदयोरत्यादरादानमत् । लोकालावनकारितद्गुणगणराकृष्यमाणा स्वयं
पूर्वोपार्जितपुण्यसंपदपरा किं नातनोवद्भुतम् ।।१५८॥ इत्यसगकृतो शान्तिपुराणे वज्रायुधसंभवे वज्रायुषप्रतिवादिविजयो नाम
___ * नवमः सर्गः *
इस प्रकार जो निरन्तर धर्म कथा में उद्यत होता हुआ भी स्वराष्ट्र तथा पर राष्ट्र की चिन्ता में निपुण मन्त्रियों के द्वारा अधिकृत राज्य की स्थिति को क्रम से बढ़ा रहा था तथा स्त्रियां जिसे अन्तर्गत स्नेह रूपी रस से आर्द्र दृष्टि के द्वारा देखती थीं ऐसा वह राजा धर्म तथा अर्थ से अविरुद्ध काम का भी उपभोग करता था ।।१५७।। समस्त शत्रु राजा भी जो पहले शक्ति शाली थे, आगे प्रकट होने वाले चक्र के भय से ही मानों उसके चरणों में स्वयं आदर पूर्वक नम्रीभूत हो गये थे यह ठीक ही है क्योंकि लोकों को आनन्दित करने वाले उसके गुण समूह से स्वयं आकृष्ट हुई पूर्वोपार्जित पुण्य रूपी अनिर्वचनीय संपदा किस आश्चर्य को विस्तृत नहीं करती है ? ॥१५८।।।
इस प्रकार असग महा कवि के द्वारा विरचित शान्तिपुराण में वज्रायुध की उत्पत्ति तथा वज्रायुध ने प्रतिवादी को जीता"इसका वर्णन करने वाला नवम सर्ग समाप्त हुआ ।।६।।
१ स्वराष्ट्रचिन्तनं तन्त्रः २ परराष्ट्रचिन्तनम् अवापः ३ भविष्यच्चक्ररत्नभयेनेव ।
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