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________________ ११५ श्रीशान्तिनाथपुराणम् क्रमत: पूर्णतां 'चेतादात्मात्मीयावबोधनात् । श्राजवंजवहेतु नामशेषाणामनुद्गमे ॥ १४६ ॥ ततन्निबन्धनात्पूर्वबन्धानां प्रतिबन्धने । निर्बन्धात्पूर्वबन्धानां कर्मणामपि निर्गमे ॥ १४७॥ शुद्धात्मनः स्वभावोत्यशुद्धानन्त चतुष्टये । धौव्यानुत्कृष्ट निर्देश्यस्वभावे समवस्थितिः ॥ १४८ ॥ तामित्याचक्षते मोक्षमव्यावाधां विचक्षरणाः । स्पष्टीकृतं विशिष्टाद्यं परमं ते चतुष्टयम् ॥१४६॥ सजीवास्तित्वसंशीतिमिति राजा निराकरोत् । प्रतिवाद्यपि तद्वाक्यं तथेति प्रत्यपद्यत ।। १५० ।। नान्यस्त्वमिव सद्दृष्टिरितीशानो" यदभ्यधात् । स देवस्तत्तथेत्युक्त्वा तं प्रपूज्य दिवं ययौ । १५१ ।। गतवत्यथ गीर्वाण' तस्मिञ्जातकुतूहलैः । कोऽयं किमेतदित्युक्तः सम्यैरित्याह भूपतिः ।। १५२ ॥ श्रयं महाबलो नाम व्योमचारी महाहवे । दमितारिवधे क्रोधादम्यघानि मया पुरा ॥१५३॥ स संसृत्याथ संसारे सुरोऽभूत्सुर संसदि । ईशानोऽद्यागृहीन्नाम सम्यग्ष्टिकथासु मे ॥ १५४ ॥ । ग्रन्तः क्रुद्धोऽयमायासीत्ततश्छलयितुं स माम् । प्रवादिच्छद्मना देवः प्राग्वैरं हि सुदुस्त्यजम् ।। १५५ ।। इत्युक्त्वा व्यरमद्राजा सुरागमनकारणम् | निवृत्तकारणस्तेषामनुगाम्यवधीक्षणः || १५६ ।। को प्राप्त हुए आत्मा और आत्मीय के ज्ञान से जब संसार के समस्त कारणों - मिथ्यादर्शनादि का प्रभाव हो जाता है, तत् तत् कारणों से पूर्व में बँधने वाले कर्मों पर प्रतिबन्ध लग जाता है अर्थात् उनका संवर हो जाता है और पूर्व बद्ध कर्मों की निर्जरा हो जाती है तब बन्ध रहित अवस्था होने से सहज शुद्ध अनन्त चतुष्टय रूप त्रैकालिक सर्वश्रेष्ठ स्वभाव में शुद्धात्मा की जो सम्यक् प्रकार से स्थिति होती है ज्ञानीजन उस निर्वाध स्थिति को मोक्ष कहते हैं इस प्रकार तेरे लिये जीव तत्त्व के सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि चतुष्टय का स्पष्ट कथन किया है ।। १४६ - १४६ ।। इस प्रकार उस राजा ने जीव के अस्तित्व विषयक संशय का निराकरण कर दिया और प्रतिवादी ने भी उसके वचनों को 'तथेति' - ऐसा ही है। यह कह कर स्वीकृत कर लिया ।। १५० ।। ' आपके समान दूसरा सम्यग्दृष्टि ने कहा था वह वैसा ही है' यह कह कर उस देव ने राजा की चला गया ।। १५१ ।। नहीं है' ऐसा जो ईशानेन्द्र पूजा की पश्चात् वह स्वर्ग तदनन्तर उस देव के चले जाने पर जिन्हें कौतूहल उत्पन्न हुआ था ऐसे सभासदों ने कहा कि यह कौन है ? यह सब क्या है ? इसके उत्तर में राजा ने कहा कि यह महाबल नामका विद्याधर उस महायुद्ध में जिसमें कि दमितारि का वध हुआ था क्रोधवश मेरे द्वारा पहले मारा गया था ।। १५२१५३ ।। वह संसार में भ्रमरण कर देव हुआ । देवसभा में आज ईशानेन्द्र ने सम्यग्दृष्टियों की कथा चलने पर मेरा नाम लिया ।। १५४ । । तदनन्तर यह देव अन्तरङ्ग में क्रुद्ध हो मुझे छलने के लिये प्रवादी के कपट से यहां आया था सो ठीक 'है क्योंकि पहले का वैर बड़ी कठिनाई से छूटता है ।। १५५ ।। इस प्रकार अनुगामी अवधिज्ञान रूपी नेत्र से युक्त राजा उन सभासदों के लिये देव के आने का - कारण कह कर अन्य कुछ कारण न होने से चुप हो गया ।। १५६ ।। १ इतात् प्राप्तात् २ संसारकारणानाम् ३ जीवसद्भावसंशयम् ४ स्वीचकार ५ ऐशानेन्द्र ६ देवे ७ विद्याधर । ८ हतः ९ अनुगामी पूर्व भदात् सहागतः अवधिअवधिज्ञानमेवरेव दक्षिणं नेत्रं यस्य सः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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