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________________ नवमः सर्गः तहमात्रता. चापि तत्रैवानुभवाद्भवेत् । देहान्तरगतेस्तस्य नानात्वं चापि युक्तिमत् ॥१४॥ एवं पुंसः सतस्तस्य परिणामानुपेयुषः' । स्वेतरात्मप्रकाशस्य सकृत्सर्वान्प्रकाशयेत् ॥१४॥ कारणं न स्वभाव: स्याद्य क्तमात्मान्तरं न च । अग्नेर्वा दहतो दाह प्रतिबन्धस्तु कारणम् ।।१४२॥ अनुभूयमानज्ञानेन कादाचित्कत्वमात्मनः । अनुमाप्रतिबन्धस्य सनिबन्धनतागः ॥१४॥ यच्चाप्यनात्मनास्मीवेष्वात्मात्मीयावबोधनम् । तन्मूला: सर्वदोषाः स्युः कर्मबन्धनिबन्धनाः ॥१४४॥ तत्कर्मोदयजं दुःखमामनन्त्याजवंजवम् । तद्ध तुप्रतिपक्षात्मा रत्नत्रितयभावना ॥१४॥ जायगी ॥१३६।। वह अात्मा शरीर प्रमाण है क्योंकि उस शरीर में ही आत्मा का अनुभव होता है और चूकि आत्मा अन्य शरीर में चली जाती है इसलिये उसका शरीर से पृथक्पना भी युक्ति पूर्ण है ।।१४०।। इस प्रकार अनेक पर्यायों को प्राप्त करने वाला यह प्रात्मा निजात्मा और परात्मा को प्रकाशित करने वाला है। इन सबको प्रकाशित करना इसका स्वभाव है । जब यह स्वभाव प्रकट होता है तब एक ही साथ समस्त पदार्थों को प्रकाशित कर सकता है। समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने में अन्य कोई कारण नहीं है और न कोई अन्य आत्मा की मान्यता ही युक्ति युक्त है । जिस प्रकार अग्नि जलाने के योग्य पदार्थ को जलाती है तो यह उसका स्वभाव ही है । चन्द्रकान्त आदि मणियों का प्रतिबन्ध जिस प्रकार अग्नि के दाह स्वभाव के प्रकट होने में बाधक कारण है उसीप्रकार आत्माके ज्ञान स्वभाव के प्रकट होने में ज्ञानावरणादि कर्म का उदय बाधक कारण है । बाधक कारण के हटने पर आत्मा अपने ज्ञान स्वभाव से सबको प्रकाशित करने लगता है ॥१४१-१४२॥ ___अनुभव में आने वाले ज्ञान से आत्मा का कथंचित् अनित्यपना भी सिद्ध होता है क्योंकि प्रतिक्षण अन्य अन्य घट पटादि पदार्थों का ज्ञान होता रहता है। इसी प्रकार ज्ञान की सप्रतिबन्धता-बाधक कारणों से सहित पना और सनिबन्धनता-कारणों से सहितपना भी सिद्ध होता है भावार्थ-ज्ञान के विषयभूत घट पटादि पदार्थों की अनित्यता के कारण ज्ञान में भी कथंचित् अनित्यता है और क्षायोपशमिक ज्ञान चूकि दीवाल आदि प्रतिबन्धक कारणों का अभाव होने पर तथा प्रकाश आदि अनकल कारणों के होने पर प्रकट होता है इसलिये ज्ञान में कथंचित सप्रतिबन्धता और निनिवन्धनता भी विद्यमान है । हां-केवल ज्ञान इन दोनों से रहित होता है ।।१४३।। अनात्मा और अनात्मीय पदार्थों में जो आत्मा और आत्मीय का ज्ञान होता है तन्मूलक ही समस्त दोष होते हैं और समस्त दोष ही कर्मबन्ध के कारण होते हैं । भावार्थ-ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव वाला प्रात्मा है और ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि आत्मीय हैं क्योंकि इसके साथ ही आत्मा का व्याप्य व्यापक या त्रैकालिक सम्बन्ध है इसके विपरीत नोकर्म-शरीरादि को आत्मा तथा रागादि विकारी भावों अथवा स्त्री पूत्रादि को प्रात्मीय मानना अज्ञान है। संसार में कर्मबन्ध के कारण भूत जितने दोष हैं उन सबका मूल कारण यह अज्ञान भाव ही है ।।१४४।। कर्मोदय से होने वाले दुःख को संसार मानते हैं और संसार के कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के विपरीत सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र जिसका स्वरूप है वह रत्नत्रय की भावना है ।।१४५।। क्रम से पूर्णता १ प्राप्तवत: २ आजवंजवस्य संसारस्येदम् आजवंजवम् संसारसम्बन्धि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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