SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ श्रीशांतिनाथपुराणम् देव्याः कनकचित्राया गर्भ तस्मिन्नुपेयुषि समभावि पुरोधावः कल्याणागमशंसिभिः ॥२३॥ यामे 'तुर्ये 'त्रियामायाः स्वप्नामेतानथैक्षत । सूर्याचन्द्रौ मृगेन्द्रभी चक्र चातपवारणम् ॥२४॥ अथासावितया देव्या सूनुरश्चितविक्रमः । बिभ्राणो राजहंसोऽपि "लक्ष्मणानुगतां तनुम् ॥२॥ जातमात्र समालोक्य बजायुधसमश्रियम् । वन्नायुध इति प्रीतस्सवाल्यामकरोत्पिता ।।२६।। सर्वा बभासिरे विद्याः संक्रान्ता यस्य मानसे। सरसीव शरत्ताराः प्रसन्ने निर्मलश्रियः ॥२७॥ गुरणी गुणान्तरज्ञाच: नान्योऽसूतत्समो यतः । उपमानोपमेयत्वं स्वस्य स्वयमगात्ततः ॥२८॥ चन्दनस्येव सोगव्यं । माभीर्यमिव पारिधेः । सिंहस्यासीघथा शौर्य मस्यौदाnिel त्रिलोकीमखिला यस्य क्यानशे युगपद्यशः । एकमप्येतदाश्चर्य शरच्चन्द्रांशुनिर्मलम् ॥३०॥ 'अमदः प्रमदोपेतः सुनयो 'विनयान्वितः। 'सूक्ष्मदृष्टिविशालाक्षो'' यो विभाति स्म मस्मितः ।३१॥ के लिए उद्यत हुआ तब कल्याणकारी आगमन को सूचित करने वाले उत्सव पहले से ही होने लगे ॥२३।। तदनन्तर रानी ने रात्रि के चतुर्थ पहर में सूर्य, चन्द्रमा, सिंह, हाथी, चक्र और छत्र ये स्वप्न देखे ॥२४॥ पश्चात् रानी ने शोभायमान पराक्रम से युक्त वह पुत्र उत्पन्न किया जो राजहंसलाल चोंच तथा लाल पञ्जों वाला हंस होकर भी लक्ष्मरणानुगतां-सारस की स्त्रियों से अनुग शरीर को धारण कर रहा था। (परिहार पक्ष में श्रेष्ठ राजा होकर भी लक्ष्मणा-अनुगतां-सामुद्रिक शास्त्र में निरूपित अच्छे लक्षणों से युक्त शरीर को धारण कर रहा था।) ॥२५॥ उत्पन्न होते ही उसे इन्द्र के समान शोभा अथवा लक्ष्मी से युक्त देख पिता ने प्रसन्न होकर उसका वज्रायुध नाम रक्खा था ॥२६॥ जिस प्रकार स्वच्छ सरोवर में प्रतिबिम्बित शरद् ऋतु के निर्मल तारे सुशोभित होते हैं उसी प्रकार जिस पुत्र के मनरूपी मान सरोवर में प्रतिबिम्बित-अवतीर्ण समस्त निर्मल विद्याएं सुशोभित हो रहीं थीं ॥२७॥ जिस कारण उसके समान गुणी और गुणों के अन्तर को जानने वाला दूसरा नहीं था उस कारण वह स्वयं ही अपने आपके उपमानोपमेय भाव को प्राप्त था ।।२८।। जिस प्रकार चन्दन की सुगन्धता, समुद्र की गम्भीरता और सिंह की शूरता अकृत्रिम होती है उसी प्रकार जिसकी उदारता अकृत्रिम थी ॥२६॥ शरद् ऋतु के चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल जिसका यश एक (पक्ष में अद्वितीय) होकर भी एक साथ समस्त तीनों लोकों में व्याप्त हो गया था यह आश्चर्य की बात है ।।३०।। मन्द मुसक्यान से सहित जो पुत्र अमद-गर्व से रहित होकर भी प्रमद--बहुत भारी गर्व से सहित था (परिहार पक्ष में हर्ष से सहित था) जो सुनय-अच्छे नय से युक्त होकर भी विनयान्वित-नयके अभाव से सहित था (परिहार पक्ष में विनय गुण से सहित था) और सूक्ष्म दृष्टि सूक्ष्म नेत्रों से सहित होकर भी विशालाक्ष-बड़े बड़े नेत्रों से सहित था (परिहार पक्ष में गहराई से पदार्थ को देखने वाला होकर भी बड़े बड़े नेत्रों से सहित था) ॥३१॥ जो अध्ययन १ चतुर्थे २ रात्रे: ३ राजहंसोऽपि सन् श्रेष्ठनृपोऽपि सन् ४ लक्ष्मणया सारसस्य स्त्रिया अनुगता ताम् पक्षे लक्ष्मणा लक्षणः अनुगता ताम् ५ व्याप ६ मदरहितः ७ प्रकृष्टमदेनसहितः परिहार पक्षे प्रमदेन हर्षेण सहितः शोभननययुक्तः ९ न नयान्वित इति विनयान्वितः पक्षे विनये नम्रभावेन सहितः १. सूक्ष्मलोचनः पक्षे वस्तुतत्वस्य बंभीर विचारका ११ दीर्घलोचनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy