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नवमः सर्गः
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प्रनधीतबुध: सम्यग प्रभासितसुन्दरः । प्रासीच्च यः सतां नित्यमनाराधितवत्सलः ॥ ३२ ॥ 'श्रायुषीयोऽप्यनिस्त्रिशो 'नवीनोऽप्यजल' स्थितिः । "योऽभून्मनुष्यधर्मापि 'वसुत्यागपरायण । ॥३३॥ 'कल्याण प्रकृतेर्यस्य सुमेरोरिव सून्नतेः । प्राश्रित्य " विबुधाः सेव्यां पादच्छायां विशश्रमुः ॥ ३४ ॥ ॥ चारुताऽभूषयद्यस्य वपुस्तन्नवयौवनम् । तत्सौभाग्यं तदप्युच्चेः शौचं शौचाधिकस्तुतम् ||३५|| स यौवराज्यमासाद्य प्रसन्नात्मा विदिद्युते । शारदः सकलश्चन्द्रो यथा लोकमनोहरः ॥ ३६ ॥ उपायत स कल्याणी पद्मिनीं वा सलक्षणाम् । कन्यां लक्ष्मीमती कल्यां चारुविभ्रमरोचिताम् ||३७||
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किये बिना ही विद्वान् था, अच्छी तरह अलंकृत न होने पर भी सुन्दर था, और आराधना सेवा किये बिना ही सत्पुरुषों से निरन्तर स्नेह भाव रखता था ।। ३२ ।। जो प्रायुधीय-शस्त्रों द्वारा प्रहार करने वाला होकर भी निस्त्रिश - खड्ग से रहित था ( पक्ष में निस्त्रिश क्रूर नहीं था ) नदीन नदियों का स्वामी -- समुद्र होकर भी अजलस्थिति - जल के सद्भाव से रहित था ( पक्ष में नदीन-दीन न होकर भी जड स्थिति - मूर्खजन की स्थिति से रहित था) और मनुष्य धर्मा—यक्ष होकर भी वसुत्यागपरायण–कुबेर का त्याग करने में तत्पर था - अपने स्वामी के त्याग करने में उद्यत था (पक्ष में मनुष्यस्वभाव से युक्त होकर भी धन का त्याग करने में तत्पर था अर्थात् दानी था ) ||३३|| जिस प्रकार कल्याणप्रकृति - सुवर्णमय तथा सून्नति - बहुत भारी ऊंचाई सहित सुमेरु पर्वत की सेवनीय पादच्छाया - प्रत्यन्त पर्वतों की छाया का आश्रय कर विबुध - देव विश्राम करते हैं उसी प्रकार कल्याण प्रकृति—कल्याणकारी स्वभाव से युक्त तथा सून्नति उदारता से सहित जिस वज्रायुध के सेवनीय पादच्छाया -- चरणों की छाया का आश्रय कर विबुध - विशिष्ट अथवा विविध प्रकार के विद्वान् विश्राम करते थे ||३४|| सुन्दरता जिसके शरीर को विभूषित करती थी, नवयौवन जिसके शरीर को विभूषित करता था, सौभाग्य जिसके नवयौवन को अलंकृत करता था और शौच गुण के धारकों के द्वारा स्तुत शौचगुरण जिसके सौभाग्य को अत्यधिक सुशोभित करता था ।। ३५ ।।
वह प्रसन्न हृदय वज्रायुध युवराज पद को पाकर लोकों के मन को हरण करने वाले शरद ऋतु के पूर्णचन्द्रमा के समान देदीप्यमान हो रहा था ।। ३६ ।। उस वज्रायुध ने कल्याण करने वाली पद्मिनी के समान लक्षणों से सहित तथा सुन्दर विभ्रम हाव भाव से सुशोभित (पद्मिनी के पक्ष में सुन्दर पक्षियों के संचार से सुशोभित लक्ष्मीमती नामकी स्वस्थ कन्या को विवाहा था ।। ३७।। जिनमें
१ मनधीतोऽपि अध्ययनरहितोऽपि बुधो विद्वान् २ अनलंकृतोऽपि सुन्दर । ३ आयुधं प्रहरणं यस्य तथाभूतोऽपिसन् ४ कृपाण रहितः पक्षे अक्रूरः ५ नदीनामिनः स्वामी नदीन: सागरोऽपिसन् पते न दीनो नदीन: दीनता रहित । ६ नास्तिजलस्य स्थितिर्यस्मिन् सः पक्षे डलयोरभेदात् न जडस्थिति: मूर्खजनरीतिर्यस्य स० ७-८ मनुष्यधर्मापि पक्षोऽपि वसोः धनाधिपस्य कुवेरस्य त्यागे परायणः तत्परः यक्षो यक्षाधिपं कथं त्यजेत् इति विरोधः पचेमनुष्यधर्मा मनुष्य कर्तव्ययुक्तेऽपि वसोर्धनस्य त्यागे वितरणे परायण: वसुर्मयूखाग्नि धनाधिपेषु 'वसु तोये धनेमणी' इति कोषः ९ सुमेरु पक्षे कल्याण प्रकृतेः सुवर्णमयस्य नृपति पक्षे कल्याणी प्रकृतिः यस्य तस्य १० सुमेरु पक्षे समुत्तङ्गः नृपति पक्षे समुदारः ११ सुमेरुपक्षे देवाः नृपति पक्षे विद्वान्स १२ सुमेरु पक्षे प्रत्यन्त पर्वतच्छायां नृपतिपक्षे चरणच्छायाम् ।
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