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________________ अष्टमः सर्गः १ विद्युन्मती सुतां लेभे कान्या 'पद्मामिवापराम् । पद्मावतीति विख्यातां चक्रवर्त्यङ्कलालिताम् ॥ ८४ ॥ द्व े सुते साधुताभाजावभूतां कनकमियः । सुवर्णलतिका ज्येष्ठा परा पद्मलताभिधा ॥८५॥ तत्सुतास्ताश्च ते देव्यावमितश्रीः भुतान्विता । गणिनी ग्राहयामास व्रतानि गृहमेधिनाम् ।। ८६ ।। सम्यक्त्वशुद्धिसंपन्ना कनकश्रीश्च तत्सुते । ता: पस्नमेत्य सौधमं प्रापुनत्या तनुत्यजः ॥६७॥ पद्मावतीच तत्रैव देवो लावण्यशालिनी । दानवत रताप्यासीत्सम्यक्त्वेन च वजिता ॥८८॥ कनकधीरिति श्रीमान्प्रतीहि स्वं दिवश्च्युतम् । ततः सुकुण्डलस्यासीस्त्वं सुतो मणिकुण्डल: इत्युक्वा मद्भवान्वयक्तं विरतं सुकुतूहली । भूयो नत्वा तमप्राक्षं क्व जाता मत्सुता इति ॥६०॥ श्रथेत्याख्यत्स भव्येशों जम्बूद्वीपस्य भारते । जातौ रत्नपुरेशस्य तनयौ ते भवत्सुते ॥१॥ श्रासीद्देवी च तत्रैव दिवश्च्युत्वा विलासिनी । तस्याः कृते तयोः क्रोषाद्य द्धमस्यसि वर्तते ॥ ६२॥ इति श्रुत्वा मुनेस्तस्माततोऽहं तरसागमम् । सौहार्दाद्भवतोर्युद्ध निवारयितुमखसा ॥६३॥ माता भूत्वा स्वा भार्या पिता च स्यात्सुतो रिपुः । इत्यनेकपरावर्ताद्भवात् को न विरज्यते ।। ६४ । । विद्य ुन्मती और कनकश्री नामकी दो स्त्रियां थीं ॥ ८३॥ विद्य ुन्मती ने पद्मावती नाम से प्रसिद्ध ऐसी पुत्री को प्राप्त किया जो कान्ति से दूसरी लक्ष्मी के समान जान पड़ती तथा चक्रवर्ती की गोद में कीड़ा करने वाली थी ।। ६४ ।। कनकश्री के सज्जनता से युक्त दो पुत्रियां हुईं। उनमें सुवर्ण लतिका ज्येष्ठ पुत्री थी और पद्मलता नामकी छोटी पुत्री थी ।। ८५ ।। उन तीनों पुत्रियों तथा दोनों रानियों को शास्त्रज्ञान से सहित अमितश्री नामकी गणिनी ने गृहस्थों के व्रत ग्रहण करा दिये ॥ ८६ ॥ सम्यक्त्व की विशुद्धता से सहित कनकश्री और उसकी दोनों पुत्रियां नीति पूर्वक शरीर का त्याग करती हुईं पुरुष पर्याय को प्राप्त कर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुईं || ८७ || और पद्मावती दानव्रत में रत होने पर भी सम्यक्त्व से रहित थी अतः वह उसी सौधर्म स्वर्ग में सौन्दर्य से सुशोभित देवी हुई ||८८ ॥ सौधर्म स्वर्ग में कनकश्री का जीव जो लक्ष्मी संपन्न देव हुआ था वही स्वर्ग से च्युत होकर तुम हुए हो, ऐसा Surat | वहां से आकर यहां तुम सुकुण्डल के पुत्र मरिण कुण्डल हुए हो ||८|| इस प्रकार मेरे भवों को स्पष्ट रूप से कह कर जब मुनिराज चुप हो गये तब कौतुहल से युक्त हो मैंने पुनः नमस्कार कर उनसे पूछा कि मेरी वे पुत्रियां कहां उत्पन्न हुई हैं ? ॥६०॥ पश्चात् भव्य शिरोमणि मुनिराज ने कहा कि तुम्हारी वे पुत्रियां जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में रत्नपुर नगर के राजा श्रीषेण के पुत्र हुए हैं ||११| और स्वर्ग में जो देवी थी ( पद्मावती का जीव ) वह वहां से च्युत हो कर वहीं पर वेश्या हुयी है । उस वेश्या के लिये उन पुत्रों - इन्द्र उपेन्द्र में क्रोध से तलवार का युद्ध हो रहा है ।। ६२ ।। उन मुनिराज से ऐसा सुन कर मैं सौहार्द वश आप दोनों का युद्ध रोकने के लिये वास्तव में वेग से यहां आया हूं ||१३|| यह जीव माता होकर बहिन, स्त्री, पिता, पुत्र और शत्रु हो जाता है ऐसे अनेक परावर्तनों से सहित इस संसार से कौन नहीं विरक्त होता है ? ||६४ || इस प्रकार अपना सम्बन्ध कह कर जब १ लक्ष्मीमिव २ पुरुषत्वं प्राप्य ३ मम भवा मद्भवाः मत्पूर्वपर्यायाः तान् ४ असिमा असिना प्रहृत्य इदं युद्ध प्रवृत्तमिति अस्यसि ५ वेगेन ६ परमार्थेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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