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श्रीशांतिनाथपुराणम् इत्युदीर्य स्वसम्बन्धं घिरते खेचरेश्वरे। व्यस्राष्टां मानसास्कोपं करवालं च तो करात् ॥१५॥ 'तावानन्दमवद्वाष्परिणकाकीर्णलोचनौ । नत्वा कल्याण मित्रं तं वाचमित्वमवोचताम् ॥६॥ एवमावामसवृत्ती भवतायोज्य सत्पथे । तृतीयमववृत्तोऽपि मातृस्नेहो नवीकृतः ॥६॥
सागन्ध्यादि नायास्यब्रुवानेतावती भुवम् । तदावामपतिष्याव दुरन्ते भवसागरे ॥८॥ एवं प्रायस्तमित्युक्त्वा विसj मरिणकुण्डलम् । सुधर्मारणं मुनि नत्वा तावभूतां तपोधनी ॥६॥ भीषणस्तद्वियोगा” विषदिग्धं महोत्पलम् । प्राघ्राय स यशःशेषो बभूव भुवनेश्वरः ॥१०॥ सिंहनन्दापि तेनैव कमलेन स्वनीवितम्। प्रत्याक्षोत्स्वपतिप्रीत्या निवानन्यस्तमानसा ॥१०॥ अनिन्दिता तदाघ्राय ममार विषपङ्कजम् । समं स्वप्रणयाकृष्टवित्तया सत्यभामया ॥१०२।। उत्तरां पातकोखण्डे पूर्वमन्दरसंश्रयाम् । कुरुं प्राप्याजनि पक्ष्मापः स साधं सिंहनन्दया ॥१०३।। प्रनिन्दितापि तत्रैव स्वेन शुद्ध न कर्मणा। पुरुषोऽजायत प्रीत्या सती सत्यापि तद्वधूः ॥१०४॥ "निरापिस्तेषु निविश्य सुखं पल्यत्रयोपमम् । स मृत्वाऽजनि सौधर्म देवः श्रीनिलयाधिपः ॥१०॥
विद्याधर राजा चुप हो रहा तब उन दोनों ( इन्द्र उपेन्द्र ) ने मन से क्रोध और हाथ से तलवार छोड़ दी ॥६५॥
हर्ष से उत्पन्न होने वाले अश्रुकरणों से जिनके नेत्र व्याप्त थे ऐसे उन दोनों ने उस कल्याणकारी मित्र को नमस्कार कर इस प्रकार के वचन कहे ॥१६॥ इस तरह खोटी प्रवत्ति करने हम दोनों को सुमार्ग में लगा कर आपने तृतीय भव में होने वाले मातृ स्नेह को भी नया कर ।१७।। कौटुम्बिक सम्बन्ध के कारण यदि आप इतनी दूरभूमि पर नहीं आते तो हम दोनों दुःख दायक संसार सागर में पड़ जाते ।।६८॥ प्रायः इसी प्रकार के वचन कह कर उन्होंने उस मणि कूण्डल विद्याधर को विदा किया और स्वयं सुधर्मा मुनिराज को नमस्कार कर मुनि हो गये ।।१६।। उनके वियोग से दुखी राजा श्रीषेण विषलिप्त कमल को सूघ कर मृत्यु को प्राप्त हो गये ॥१०॥ निदानबन्ध में जिसका चित्त लग रहा था ऐसी रानी सिंहनन्दा ने भी अपने पति की प्रीति से उसी कमल के द्वारा अपना जीवन छोड़ दिया ।।१०१।। अनिन्दिता नामकी दूसरी रानी भी अपने प्रेम से
आकृष्टचित्त सत्यभामा के साथ विषलिप्त कमल को सूघ कर मर गयी ॥१०२॥ . राजा श्रीषेण सिंहनन्दा रानी के साथ धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरु सम्बन्धी उत्तरकुरु में जाकर उत्पन्न हुआ ॥१०३।। अनिन्दिता भी अपने शुद्ध कर्म से वहीं पुरुष हुई और प्रीति के कारण सती सत्यभामा भी उसकी स्त्री हुई ॥१०४।। मानसिक व्यथा से रहित श्रीषेण का जीव आर्य उस उत्तर कुरु में तीन पल्य तक सुख भोग कर मरा और मर कर सौधर्म स्वर्ग में श्रीनिलय विमान का स्वामी देव हुआ ॥१०५।। निदान से उस तृतीय भव के पति के साथ साथ जाने वाली सिंहनन्दा भी
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रामग्देन भवन्त्यो या वाष्पकणिकाः ताभिः कीर्णो व्यप्ति लोचने ययोस्ती २ सम्बन्धात् ३ दुष्ट: अन्तो यस्य तस्मिन् ४ यश एव शेषो यस्य तथाभूतः मृतइत्यर्थः ५ प्रथिवीपतिः-राजा ६ मानसिक व्यथा रहितः ।
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