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________________ १० श्रीशान्तिनाथपुराणम् तन्मध्ये खेचरावासो राजते 'राजतो गिरिः। तत्रादित्यपुरं नाम परमं विद्यते पुरम् ॥७२।। सुकुण्डलाभिधानोऽभून्मत्पिता तत्पुराधिपः । अमिता जनयित्री मे नाम्नास्मि मणिकुमः ॥७३॥ प्रधत्त स तपोभारं राज्यभारे नियुज्य माम् । साधिताशेषविद्यार्क स्पृहयन्मुक्तये पिता ॥७॥ शैलादवातरंस्तस्मादेकदाथ रिरंसया । स्वेच्छया विहरन्भूमाववापं .पुण्डरीकिलोम् ॥७॥ तस्याममितकोयाख्यस्तिष्ठन्नुद्यानमण्डले । विश्वदृश्वा मया दृष्टो मुनिर्मान्यो दिवौकसाम् ।।७६।। अप्राक्षं तमहं नत्वा स्वमतीतभवं मुदा । स 'प्राक्रस्त ततो वक्तुं सुव्यक्तं वाग्विां परा॥७॥ विशुखवृत्तया नीतः सौधर्म धर्मसंपदा । स तत्राष्टमुरणश्वर्यममरत्वं त्वमन्वभूः ॥७॥ तत्राभूतां सहायौ है पुत्रिकेऽनन्तरे भवे । प्रन्या सुराङ्गना चासीत्कामरोगार्तमानसा IIVell प्रथापृच्छं कथं नाथ भवियुमें सुताश्च ताः । अयं जनः कुतस्त्यो वा शाषि बोधकलोचन ॥५०॥ सौधर्मप्रभवादाल्यादिति प्राग्जन्म मे मुनिः। द्वीपोऽस्ति पुराभिल्यः स पूर्वापरमन्दरः ॥१॥ तत्रापरविदेहेषु मन्दरस्यापरस्य पूः'। बीतशोकेति नामास्ति 'वीतशोकजनाचिता ॥२॥ चक्रायुधो यथार्थाल्यो राजा तामशिषत्पुरीम् । प्रासीद्विधु न्मती तस्य कनकधीश्व वल्लभा॥३॥ सुशोभित है। उसी विजयाध पर्वत पर आदित्यपुर नामका उत्तम नगर विद्यमान है ॥७२॥ सुकुण्डल नामक मेरे पिता उस नगर के राजा थे। अमिता मेरी माता थी और मैं उन दोनों का मणिकण्डल नामका पत्र हं ॥७३॥ जिसने समस्त विद्याएं सिद्ध कर ली थीं ऐसे मझे राज्य भार में नियुक्त कर मुक्ति की इच्छा करने वाले पिता ने तप का भार धारण कर लिया-मुनि दीक्षा ले ली ॥७४।। तदनन्तर एक समय उस विजया पर्वत से उतर कर क्रीड़ा करने की इच्छा से स्वेच्छानुसार पृथिवी पर विहार करता हुआ मैं पुण्डरी किणी नगरी पहुंचा ।।७५।। उसके उद्यान में विराजमान, विश्वदर्शी तथा देवों के माननीय अमित कीर्ति नामक मुनिराज को मैंने देखा ।।७६।। उन्हें नमस्कार कर मैंने हर्ष से अपना पूर्वभव पूछा। तदनन्तर वचन कला के पारगामी मुनिराज स्पष्ट रूप से कहने लगे ।७७।। निर्मल चारित्र से युक्त धर्म रूप सम्पत्ति के द्वारा तुम सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए थे। वहां तुमने अणिमा महिमा आदि पाठ ऋद्धियों से युक्त देव पद का अनुभव किया था ॥७८।। उस समय तुम्हारे साथ रहने वाले जो दो देव थे वे पूर्वभव में तुम्हारी पुत्रियां थीं । इनके सिवाय काम रोग से पीड़ित चित्तवाली एक अन्य देवाङ्गना भी थी । वह भी तुम्हारी पुत्री थी ॥७६।। . तदनन्तर मैंने मुनिराज से पूछा कि हे नाथ ! वे सब मेरी पुत्रियां कैसे थीं ? और यह मैं कहां से पाया हूं ? हे ज्ञानरूप नेत्र के धारक ! मुझे बताइये ॥८०।। मुनिराज मेरा सौधर्म स्वर्ग के भव से पूर्व का भव इस प्रकार कहने लगे । पूर्व और पश्चिम मेरु पर्वतों से सहित पुष्कर नामका द्वीप है। उसके पश्चिम मेरु पर्वत के पश्चिम विदेहों में वीतशोका नगरी है जो शोक रहित मनुष्यों से व्याप्त है ॥८१-८२॥ सार्थक नाम वाला चक्रायुध नामका राजा उस नगरी का शासन करता था। उसकी १ विजयाध: २ साधिता अशेषविद्या येन तम् ३ रन्तु-क्रीडितुमिच्छया ४ तत्परोऽभूत् ५ ब्रूहि ६ नगरी ७ शोकरहित जनव्याप्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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