________________
अष्टमः सर्गः
८६
प्रत्युत्थाय प्रसामाग्रस्तावभ्यर्थ्य प्रयत्नतः । प्रियाम्यांमुदितः सार्ध भूभुजा तावबूभुजत् ॥६२।। सत्यभामाय लहानमालोक्य प्रीतमानसा । मन्त्रासोबत कल्याणं कल्यापाभिनिवेशिनी ॥६३।। भाविनी सूचयामास तस्य संपत्परम्पराम् । माश्चर्यपञ्चकं राज्ञो विवि देवः प्रपश्चितम् ॥६४॥ इनास्यासमहादेव्या वारस्त्रीयोतिकागता ।। मासीद्वसन्तसेनाख्या कान्त्या जितजगत्त्रया ॥६॥ प्रबरखापपीनेण तामुपेन्द्रः स्मरातुरः । सौभाग्येन वशीकृस्य निरुपायमुपायत ॥६६।। गुरोरप्यनु कामीको म स वायमजीगरणत् । कामग्रहगृहीतेन बिनयो हि निरस्यते ॥६७।। प्रावर्तत रखो रौद्रः स्त्रीहेत सापुत्रयोः५ । 'सोवर्याचारमुत्सृज्य भिन्नमर्यादयोस्तयोः ॥६॥ मनोरणं तयोमध्ये निकृष्टवालयोः । मोम्नो नभश्चरः कश्चित्प्राप्य स्थित्वेत्यथाब्रवीत् ॥६६॥ मा मा प्रहाष्टा श्येयं भगिनी व पुराम। बिहाय वैरवरस्यं शृणुतं सत्कथामथो ।।७०॥ देशो द्वीपे द्वितीयेऽस्ति प्रस्पया पुष्कलावती । प्राङ मन्दरस्य पूर्वेषु विवेहेषु सुपुष्कलः ॥७१।।
भरे हुए राजा श्रीषेण ने आगे जाकर नमस्कार आदि के द्वारा उनकी पूजा की, पश्चात् दोनों स्त्रियों के साथ प्रयत्न पूर्वक उन्हें आहार कराया ॥६२।। जिसका मन अत्यंत प्रसन्न था तथा जो कल्याण को चाह रही थी ऐसी सत्यभामा ने भी कल्याणकारी उस दान को देख कर उसकी अनुमोदना की ॥६३।। आकाश में देवों द्वारा विस्तारित पञ्चाश्चर्यों ने उस राजा की आगे होने वाली सम्पत्ति की परम्परा को सूचित किया था ।।६४॥
तदनन्तर राजा श्रीषेण के ज्येष्ठ पुत्र इन्द्र की महादेवी के साथ कान्ति से तीनों जगत् को जीतने वाली वसन्त सेना नामकी वेश्या भेंट स्वरूप आयी थी ॥६५॥ यद्यपि इन्द्र ने उसे स्वीकृत कर लिया था तो भी काम से आतुर उपेन्द्र ने सौभाग्य से उसे अपने वश कर लिया और कुछ उपाय न देख उसके साथ विवाह कर लिया ।।६६।। कामातुर उपेन्द्र ने पिता के भी वचनों को कुछ नहीं गिमा सो ठीक ही है क्योंकि कामरूप पिशाच के द्वारा ग्रस्त मनुष्य के द्वारा विनय छोड़ दी जाती है ॥७॥ जिन्होंने भाईचारे को छोड़ कर मर्यादा तोड़ दी है ऐसे उन दोनों राज पुत्रों में स्त्री के हेतु भयंकर युद्ध होने लगा ॥६८। उसी समय युद्ध के मध्य तलवार खींच कर खड़े हुए उन दोनों भाईयों के बीच में आकाश से पाकर कोई विद्याधर खड़ा हो गया और इस प्रकार कहने लगा ॥६६॥ प्रहार मत करो, प्रहार मत करो, यह वेश्या पूर्व भव में तुम दोनों की बहिन थी । इसलिये अब वैर विरोध छोड़ कर उसकी कथा सुनो ॥७०॥
द्वितीय द्वीप-धातकी खण्ड द्वीप में पूर्व मेरु के पूर्व विदेहों में धन धान्य से परिपूर्ण पुष्कलावती नामका देश है ।।७१।। उस देश के मध्य में विद्याधरों का निवास भूत विजया पर्वत
-
१ देवदुन्दुभिनादा, मन्दसुगन्धिशीतलसमीरसंचारः, गन्धोदकवृष्टिः, सुमनोवृष्टिः, अहोदानं अहोदानमिति ध्वनिः इत्येतानि पञ्चाश्चर्यकाणि २ उपायनीकृता ३ विवाहितवान् ४ कामातुरः ५ इन्द्रोपेन्द्रयोः ६ सनाभिव्यवहारं ७ बहिनिसारितकृपाणयोः ८ युवयोः ।
१२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org