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________________ श्री शान्तिनाथपुराणम् इत्युक्त्वा मे तदुत्पत्ति स स्वदेशमगाद् द्विजः । 'पाटच्चरभयात्स्वस्य परिधाय रपटच्चरम् ॥ ५२ ॥ स मां व भोक्तुमनिच्छन्तीमपीच्छति । ततस्त्रातुं दुराचारादीशिषे त्वं जगत्पतिः ॥ ५३ ॥ इति विज्ञाप्य सा भूपं सत्यभामापि तद्भूयात् । शुद्धान्तं शुद्धचारित्रा शरणं प्रत्यपद्यत ॥५४ || सपौरोऽथ पुराभ्यर्णे स मधौ मधुसंनिभः । चिक्रीड धृतभूभारी वैभारेद्री 'प्रियासखः ॥५५॥ ater चारित्रसंपन्नं तत्राविश्ययशोऽभिधम् । स नत्वा यतिमप्राक्षीद्भव्याभिमहितं हितम् ।। ५६ ।। व्रतान्यथ परित्रातुमक्षमाय क्षमाभुजे । तपोऽब्धिर शिषत्तस्मै दानधर्मं स धर्मवित् ।।५७|| पात्रदानफलानि त्वमनुभूय शुभाशयः । सम्यक्त्वं प्रतिपत्तासे काले नातिदवयसि ॥ ५८ ॥ तत्र श्रव्यमिति श्रुत्वा 'नामेनाभ्यर्च्य तं मुनिम् । प्रयासीन्नगरं राजा पात्रदाने समुत्सुकः ॥५६॥ नात्युद्रिक्तकषायत्वात्सुधर्म इति मेदिनीम् । न्यायेन रक्षताऽनापि कालो भूयान्महीभुजा ।। ६०'निशान्तमन्यदा तस्य काले मासमुपोषितौ । चाररणावमिता "दित्यगति प्राविशतां यतो ॥ ६१ ॥ ८८ प्रकार मेरे लिये उसकी उत्पत्ति कह कर वह ब्राह्मण अपने देश को चला गया । जाते समय उसने चोरों के भय से अपना वही जीर्ण वस्त्र पहिन लिया था || ५२ || वह नीच कुली कपिल मेरे न चाहने पर भी मुझे भोगने की इच्छा करता है इसलिये उस दुराचारी से मेरी रक्षा करने के लिये आप जगत्पति ही समर्थ हैं ।। ५३ ।। इस प्रकार राजा से निवेदन कर शुद्ध चारित्र को धारण करने वाली सत्यभामा भी उनके अन्तःपुर में शरण को प्राप्त हो गयी || ५४ || तदनन्तर अनेक नगरवासी जिसके साथ थे जो मधु - वसन्तऋतु के समान सरस था, पृथिवी के भार को धारण करने वाला था तथा अपनी स्त्रियों से सहित था ऐसा राजा श्रीषेण वसन्तऋतु में नगर के निकट वैभार पर्वत पर क्रीड़ा कर रहा था ।। ५५ ।। वहाँ उसने चारित्र से संपन्न तथा भव्य जीवों से पूजित आदित्य यश नामक मुनिराज को देखकर उन्हें नमस्कार किया । पश्चात् हे भगवन् ! मेरा हित कैसे हो सकता है ? यह पूछा ||५६ || तदनन्तर व्रत पालन करने में असमर्थ उस राजा के लिए तप के सागर तथा धर्म के ज्ञाता उन मुनिराज ने दानधर्म का उपदेश दिया ।। ५७॥ शुभ अभिप्राय से युक्त तुम पात्र दान के फल का अनुभव कर प्रत्यंत निकटवर्ती काल में सम्यक्त्व को प्राप्त होओगे ।। ५८ ।। इस प्रकार वहाँ सुनने योग्य उपदेश को सुनकर तथा नमस्कार के द्वारा उन मुनिराज की पूजा कर पात्र दान के लिये उत्सुक होता हुआ राजा श्रीषेण नगर को चला गया ॥ ५६ ॥ प्रत्यंत तीव्र कषाय का उदय न होने से 'यह सुधर्म है-राजा का कर्तव्य है' यह समझ कर न्याय पूर्वक पृथिवी का पालन करते हुए उसने दीर्घ काल व्यतीत कर दिया ।। ६० ।। तदनन्तर किसी समय दो मास का उपवास करने वाले चाररण ऋद्धि के धारक श्रमितगति और आदित्य गति नामके दो मुनियों ने आहार के समय उसके भवन में प्रवेश किया ।। ६१ ।। हर्ष से १ चोरभयात् २ जीर्णवस्त्रम् ३ वर्णेन अवरो नीचः नीचवर्णइतियावत् ४ अन्त पुरम् ५ वसन्ते ६ पत्नीसहित ७ निकटकाले ८ प्रणामेन गृहम् १० एक मांसं यावत् कृतोपवास्तं ११. अमितगति: आदित्यगतंश्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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