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________________ अष्टमः सर्गः ८७ तदीया धर्मपत्नी मे माता जम्बूमती सती। सत्यभामाभिधानां मां प्रतीहि कुलबालिकाम् ॥४०॥ प्रार्जवप्रकृति तातं प्रतार्य ब्राह्मणोचितः। कृत्यैवैदेशिको विद्वान् कपिलो मामुपायत' ॥४१॥ दुर्वृत्तात्स मयाज्ञायि वौष्कुलेय इति ध्रुवम् । प्राचारो हि समाचष्टे सदसच्च नृणां कुलम् ॥४२॥ तयुयियाए कालेन द्विजा कश्चिद्वयोऽधिकः । शोर्णकन्यान्वितः पान्थः प्राप्तवान्मद्गृहागरणम् ॥४३॥ प्रत्युत्थानादिना. पूर्वमाचारेणोपचर्य तम् । श्वसुरोऽयं तवेत्याख्यत संभ्रान्तः कपिलो मम ॥४४॥ प्रातिथेयीं स संप्राप्य सक्रिया सक्रियात्मकः । दिनानि कानिचित्स्वरं ममावासं मुदावसत् ॥४५॥ शुश्रूषयाच पवित्रम्भं प्रतिग्राहितमन्यदा। इत्यप्राक्षं तमानम्य सोपग्रहमुपहरे ॥४६॥ अथानुहरमाणोऽपि रूपोद्देशस्य ते सुतः । असवृत्तस्तथाप्येष संदेहयति मे मनः ॥४७॥ 'अनूचानो यथावृत्तमाचक्ष्वेति मयोदितः । स प्रारब्ध ततो वक्तुमित्थमर्थन मेदितः ॥४८।। मगधेष्वचलग्रामे ख्यातोऽस्मि घरपोजटः। परम्परीण्या वृत्त्या क्रियया च द्विजन्मनाम् ॥४६॥ भवभावा यशोभद्रा धर्मपत्नी ममाभवत् । श्रीमूतिर्नन्दिमूतिश्च भवतः स्म तवात्मजौ ॥५०॥ प्रभूत्प्रेष्या सुतश्चायं स्वदासः कपिलाभिषः । बुद्धवाध्यापितशेषवाङमयः 'स्मयशोभितः ॥५१॥ सत्यभामा नामकी कुल बालिका जानिये ॥४०॥ कपिल नामक विदेशीय विद्वान् ने ब्राह्मणोचित कार्यों से मेरे भोले भाले पिता को धोखा देकर मुझे विवाह लिया ॥४१॥ परन्तु उसके दुराचार से मैंने जान लिया कि यह निश्चित् नीच कुल में उत्पन्न हुना है क्योंकि आचार ही मनुष्यों के अच्छे और बुरे कुल को कह देता है ।।४२।। तदनन्तर कुछ समय बाद कोई वृद्ध ब्राह्मण पथिक जो जीर्ण शीर्ण कथरी से युक्त था, उस कपिल को लक्ष्य कर मेरे घर के आंगन में पाया ॥४३॥ संभ्रम में पड़े हुए कपिल ने अगवानी आदि के द्वारा पहले उसकी सेवा की पश्चात् मुझसे कहा कि यह तुम्हारा श्वसुर है ॥४४॥ समीचीन क्रियाओं को करने वाला वह वृद्ध ब्राह्मण, अतिथि के योग्य सत्कार प्राप्त कर कुछ दिन तक स्वतन्त्रता पूर्वक हर्ष से मेरे घर पर रहा ॥४५॥ सेवा शुश्रूषा के द्वारा जब मैंने उसे विश्वास को प्राप्त करा लिया तब एक दिन एकान्त में नमस्कार कर विनय पूर्वक उससे पूछा ।।४६।। यद्यपि आपका यह पुत्र आपके रूप का अनुकरण करता है तथापि असदाचार से यह मेरे मन को संदेह युक्त करता रहता है ॥४७॥ 'पाप वेद पाठी हैं अतः जो बात जैसी है वैसी कहिये।' इस प्रकार मैंने उससे कहा । साथ ही धन के द्वारा भी उसे अनुकूल किया । पश्चात् उसने इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया॥४८॥ मगध देश के अचल ग्राम में मैं धरणीजट नाम से प्रसिद्ध हूं । परम्परा से आयी हुई वृत्ति तथा ब्राह्मणों की क्रिया से सहित हूं ॥४६।। भद्र परिणामों से युक्त यशोभद्रा मेरी स्त्री थी। उसके दो लड़के थे-श्रीभूति और नन्दिभूति ।।५०॥ यह कपिल दासी का पुत्र था और अपना ही दास था। इसने अपनी बुद्धि से ही समस्त वाङ्गमय को पढ़ लिया तथा गर्व से सुशोभित हो गया ।।५१।। इस १ विवाहयामास २ नीचकुलोत्पन्नः ३ अतिषियोग्याम् ४ सत्कारम् ५ विश्वासम् ६ एकान्ते ७ वेदाध्ययन कर्ता ८ दासीपुत्रः ९ गर्वशोभितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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