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श्री शांतिनाथपुराणम्
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अनुरक्तोऽतिरक्ताभ्यां ताभ्यां रेजे स भूपतिः । भानुमानिव 'संध्याम्यां प्रत्यहं लक्षितोदयः ॥ २६॥ इन्द्रोपेन्द्राभिधौ पुत्रौ तयोर्देव्योश्च भूभृतः । प्रभूतामात्तरूपौ वा तस्य मानपराक्रमौ ॥ ३० ॥ बालक्रीडारसावेशे विद्याभ्यासस्तयोरभूत् । शैशवोपात्तविद्यानां भव्यता हि विभाव्यते ॥ ३१ ॥ यौवनं समये प्राप्य संपूर्णामलविग्रहौ । रेजतुस्तौ महासत्वौ विजितारातिविग्रहो ॥३२॥ यौवराज्यमवान्वेन्द्रः कृतदारपरिग्रहः । श्रजीजनत्सुतं चन्द्रं श्रीमत्यां चन्द्रसन्निभम् ॥ ३३॥ पुत्रपौत्रीणतां लक्ष्मीं स नयन्नयसंपदा । चिरं "सौराज्य सौख्यानि निविवेश विशांपतिः || ३४॥ श्रन्यदाऽवेदिता काचित्तरुणी 'साध्वसाकुला । त्रायस्वेति मुहुर्भूपं व्याहरन्ती समासदत् ||३५|| मातस तेन तस्या महीपतिः । किञ्चिदन्तस्तता' मात्मप्रतापक्षति शङ्कया ।। ३६ ।। ततः स्वयमपृच्छत्तां कुतस्ते भीतिरित्यसौ । यथान्यायं हतान्याये मयि शासति मेदिनीम् ||३७|| सा सगद्गदमित्यूचे वाचं दक्षिणपाणिना । रुन्धती वाष्पसंपातात्त्रं समानं कुचांशुकम् ॥ ३८ ॥ 'द्विजातिस्तव यो राजन् 'राजहंसस्य वल्लभः । भवामि तनया तस्य सात्यकेः सत्यशालिनः ॥ ३६ ॥
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अत्यंत रक्त-अनुराग से सहित ( पक्ष में लालिमा से सहित ) उन दोनों स्त्रियों से ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा संध्याओं से सूर्य सुशोभित होता है ।। २६ ।। राजा की उन देवियों में इन्द्र और उपेन्द्र नामक दो पुत्र हुए जो ऐसे जान पड़ते थे मानों उसके मूर्तिमन्त मान और पराक्रम ही हों ||३०|| बाल क्रीड़ा करते करते उन दोनों को विद्याभ्यास हो गया था । यह ठीक ही है क्योंकि बाल्यकाल में विद्या ग्रहण करने वालों की भव्यता - श्रेष्ठता मालूम होती है ||३१|| जिनका निर्मल शरीर अच्छी तरह भर गया था, जो महा शक्तिशाली थे तथा जिन्होंने शत्रु के युद्धों को जीता था ऐसे वे इन्द्र और उपेन्द्र समय पर यौवन को प्राप्त कर अत्यंत सुशोभित हो रहे थे ||३२||
इन्द्र ने युवराज पद प्राप्त कर विवाह किया और श्रीमती नामक स्त्री में चन्द्रमा के समान चन्द्र नामक पुत्र को उत्पन्न किया ||३३|| नय रूपी संपदा के द्वारा पुत्र और पौत्रों के लिये हितकारी लक्ष्मी को प्राप्त करने वाला राजा श्रीषेरण, चिरकाल तक सुराज्य उत्तम राज्य सम्बन्धी सुखों का उपभोग करता रहा ।। ३४ ।।
अन्य समय द्वारपाल ने जिसकी सूचना दी थी ऐसी भय से व्याकुल कोई तरुण स्त्री 'रक्षा करो रक्षा करो' इस प्रकार राजा से बार बार कहती हुई उनके पास पहुंची ।। ३५ ।। उसके प्रश्रुत पूर्व वचन से राजा अपने प्रताप की हानि की प्राशङ्का से मन ही मन कुछ दुखी हुए || ३६ || तदनन्तर राजा ने उससे स्वयं पूछा कि जब अन्याय को नष्ट करने वाला मैं न्यायानुसार पृथिवी की रक्षा कर रहा हूं तब तु किससे भय है ? ||३७|| अश्रुपात के कारण नीचे खिसकते हुए अंचल को दाहने हाथ से रोकती हुई वह गद्गद कण्ठ से इस प्रकार के वचन कहने लगी || ३८ ॥
हे राजन् ! राजाओं में श्रेष्ठ श्रापका जो प्रिय ब्राह्मण है । सत्य से सुशोभित उस सात्यकि की मैं पुत्री हूं ||३६|| उसकी जम्बूमती नामकी पतिव्रता धर्मपत्नी मेरी माता है । इस प्रकार आप मुझे
१ प्रातः संध्याभ्याम् २ संपूर्ण निर्मलशरीरी ३ विजितारियुद्धौ ४ कृतविवाहः ५ उत्तमराजसुखानि ६ भयाकुला ७ दुःखीबभूव ८ ब्राह्मणः ६ राज श्रेष्ठस्य ।
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