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________________ अष्टमः सर्ग: शिक्षावतानि चत्वारि तेषु सामायिकं व्रतम् । विशुद्ध नात्मना स्थेयं कालमुद्दिश्य शक्तितः ॥१८॥ स प्रोषधोपवासः स्याद्यच्च पर्वचतुष्टये । चतुर्विधमथाहारं 'प्रत्याख्याय प्रवर्तनम् ॥१६॥ परिभोगोपभोगेषु निर्वेशः परिसंख्यया । परिभोगोपभोगार्थ परिमाणं तदुच्यते ॥२०॥ मद्यमांसमधुत्यागः कर्तव्यश्च प्रयत्मत: । काले संयमिनां दानमातिथ्यवतमीरितम् ॥२१॥ इति संक्षेपतो धर्म द्विविधं विषिवज्जिनः । व्याहृत्य' व्यरमत्सार्वो भव्यानां हृदयंगमम् ॥२२॥ अणुव्रतान्युपायंस्त गुण शिक्षावतः समम् । हृवि विन्यस्य सम्यक्त्वं तन्मूले खेचरेश्वरः ॥२३॥ स तुष्यन्वतलामेन ततो प्राक्षोत्तमीश्वरम् । सुताराहरणे हेतु मासुरेयस्य कौतुकात् ॥२४।। प्रथोवाचेति बागीशः सर्वभाषात्मकं वचः। नरामरोरगाकीणां स समां संविभाजयन् ।। अस्मिखम्बूमति द्वीपे भरते दक्षिणे महान् । मलयो नाम देशोऽस्ति तत्र रत्नपुरं पुरम् ॥२६॥ श्रीषरणो नाम तस्याभूत् त्राता भूरियशोधनः। नगरस्य स्वदेशेषु कृतकण्टकशोधनः ।।२७।। धर्मपत्नी प्रिया तस्य सिंहनन्दाऽभवत्प्रभोः । प्रनिन्दितेति विख्याता शीलेनाप्यनिन्विता ॥२८॥ _शिक्षा व्रत चार हैं। उनमें विशुद्ध हृदय होकर शक्ति के अनुसार काल का नियम लेकर स्थिर होना सामायिक व्रत है ॥१८॥ चारों पर्यों में चार प्रकार के आहार का त्याग कर जो प्रवर्तना है वह प्रोषधोपवास कहलाता है ।।१६।। परिभोग और उपभोग की वस्तुओं में नियम पूर्वक प्रवर्तना अर्थात् उनका परिमारण निश्चित करना परिभोगोपभोग-परिमाणवत कहलाता है ।।२०।। मद्य मांस और मधु का त्याग प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये तथा समय पर संयमी जनों के लिये दान देना अतिथि संविभाग कहा गया है ।।२१।। इस प्रकार सर्व हितकारी जिनेन्द्र भगवान् संक्षेप से दो प्रकार का धर्म कह कर विरत हो गये । भगवान् के द्वारा कहा हुआ वह धर्म भव्यजीवों को अत्यन्त प्रिय था ।।२२।। विद्याधरों के राजा अमिततेज ने गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के साथ अणुव्रतों को स्वीकृत किया तथा उनके पहले हृदय में सम्यग्दर्शन को धारण किया ।।२३॥ तदनन्तर व्रतों की प्राप्ति से संतुष्ट होने वाले विद्याधर राजा ने कौतुक वश केवली जिनेन्द्र से पूछा कि अशनिघोष ने सुतारा का हरण किया, इसमें कारण क्या है ? ॥२४।। पश्चात् वचनों के स्वामी जिनेन्द्र भगवान् मनुष्य देव और धरणेन्द्रों से भरी हुई सभा को संविभाजित करते हुए इस प्रकार के सर्वभाषामय वचन कहने लगे ॥२५।। इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में मलय नामका बड़ा देश है। उसमें रत्नपुर नगर है ॥२६।। अपने देश में क्षुद्र शत्रुओं को चुन चुन कर नष्ट करने वाला तथा यश रूपी महाधन से सहित श्रीषेण राजा उस नगर का रक्षक था ।।२७।। उसकी सिंहनन्दा नामकी प्रिय धर्मपत्नी थी। दूसरी स्त्री अनिन्दिता इस नाम से प्रसिद्ध थी । यह नाम से ही नहीं शील से भी अनिन्दिता-प्रशंसनीय थी ॥२८॥ जिसका उदय-ऐश्वर्य ( पक्ष में उद्गमन) प्रतिदिन दिखायी दे रहा था ऐसा वह राजा १ परित्यज्य २ कथयित्वा ३ स्वीचकार ४ कृतक्षुद्रशत्रुपरिहारः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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