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________________ श्रीशान्तिनाथपुराणम् अशेषभावसद्भावख्यापकं ज्ञानमिष्यते । चारित्रं सर्व'सायद्यक्रियान्युपरमः स्मृतम् ।।८।। मिथ्यात्वाविरती योगाः कषाया बन्धहेतवः। कर्मात्मकश्च संसारश्चतुर्गत्युपलक्षितः ॥६।। हिंसामृषोद्यचौर्येभ्यो व्यवायाच्च परिग्रहात् । सर्वतो देशतश्चैव विरतिवंतमुच्यते ॥१०॥ मनोगुप्त्येषणादाननिक्षेपेक्षिताशिता' । अहिंसावतरक्षार्थ कीर्तिताः पञ्च भावनाः ॥११॥ "हास्यलोभाक्षमाभीतिप्रत्याख्यानं प्रचक्षते । सूत्रानुमाषणं चार्याः सत्ये पञ्च व भावनाः ॥१२।। 'उपरोधाक्रिया वासाः शून्यागारे विमोचिते । भैक्ष्यशुद्धिरभेवः स्वे पञ्चत्य स्तेयभावनाः ॥१३॥ "स्त्रीकथालोकनातीतमोगस्मृत्यङ्गसंस्क्रियाः । त्याज्या वृष्यरसाश्च स्युः पञ्चति ब्रह्मभावनाः ॥१४॥ पञ्चस्वपीन्द्रियार्थेषु रागद्वेषविवर्जनम् । 'इष्टानिष्टेषु च ज्ञेया नै:किञ्चन्यस्य भावनाः ।।१५।। महावतानि पञ्चव भूषणान्यनगारिणाम् । अणुवतान्यथैतानि भवन्ति गृहमेधिनाम् ॥१६॥ दिग्वेशानदण्डेभ्यो विरतिः स्याद्गुणवतम् । त्रिविशं सदनुष्ठेयं श्रावकः स्वहितार्थिभिः ।।१७।। कहलाता है और समस्त पाप पूर्ण क्रियाओं का अभाव हो जाना चारित्र माना गया है ।।८।। मिथ्यात्व अविरति योग और कषाय ये बन्ध के कारण हैं । कर्मरूप संसार चार गतियों से सहित है ।।६।। हिंसा, असल्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह से सर्वदेश अथवा एक देश निवृत्ति होना व्रत कहलाता है ॥१०॥ मनोगप्ति, एषरपा समिति, प्रादान निक्षेपण समिति, ईर्या समिति तथा आलोकितपान भोजन ये अहिंसा व्रत की रक्षा के लिये पांच भावनाएं कही गयीं हैं ।।११।। हास्यप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, अक्षमा (क्रोध) प्रत्याख्यान, भयप्रत्याख्यान और आगम के अनुसार वचन बोलना ये सत्यव्रत की भावनाएं हैं ऐसा अर्थ-गणधरादिक देव कहते हैं ।।१२।। परोपरोधाकरण, शून्यागारावास, विमोचितावास, भैक्ष्यशुद्धि और अपनी वस्तु में अभेद' अर्थात् सधर्माविसंवाद ये पांच अस्तेयव्रत की भावनाएं हैं ।।१३।। स्त्रीकथा त्याग, स्त्री-पालोकन त्याग, अतीतभोगस्मृति त्याग, अङ्गसंक्रिया-त्याग और वष्यरस त्याग-कामोद्दीपक गरिष्ठ भोजन त्याग ये पांच ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाएं हैं ॥१४॥ पांचों इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट विषयों में राग द्वष छोड़ना ये पांच परिग्रह त्यागवत की भावनाएं जानने योग्य हैं ॥१५॥ पांच महावत मुनियों के ही प्राभूषण हैं और ये पांच अणुव्रत गृहस्थों के आभूषण हैं ।।१६।। दिग देश और अनर्थ दण्डों-मन वचन काय की निरर्थक प्रवृत्तियों से निवृत्ति होना गुणवत है । यह गुणव्रत तीन प्रकार का है तथा अपना हित चाहने वाले श्रावकों के द्वारा पालन करने के योग्य हैं ॥१७॥ १ निखिल सपाप क्रिया परित्यागः २ असत्यवचनम् ३ मैथुनात् ४ 'वाङ मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्या लोकितपानभोजनानि पञ्च' त• सू० ५ 'क्रोधलोभभोरुचहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचि भाषणं च पञ्च' त० सू० ६ 'शून्यागारविमोचितावास परोपरोधाकरण भैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवाक्ष: पञ्च' त• सू०७ 'स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागा: पञ्च' त० सू० ८ 'मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयराग द्वेषवर्जनानि पञ्च' त० सू० । अपरिग्रहव्रतस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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