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। अष्टमः सर्गः
प्रथ भव्यात्मनां सेव्यमव्यावाधामलश्रियम् । ववन्दे खेचरेन्द्रस्तं जिनं भूपश्च भक्तितः ॥१॥ मन्तःकरणकालुष्यव्यपायामललोचनो । प्राखलीभूय तौ भक्त्या समायां समविक्षताम् ॥२॥ सुतारो तरसादाय ततः प्राप स्वयंप्रभा । नत्वा केवलिनं तत्र निषसाद च सादरम् ॥३॥ अप्राक्षीद्विजयं धर्म विजयाद्ध पतिस्ततः । धर्मानुरागनिर्धू तवैरो वैरोचनाचितम् ॥४॥ स सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्यथ केवली । प्राह धर्ममिति धेयो न श्रेयोऽन्यवितोऽङ्गिनाम् ॥५॥ तत्त्वार्थाभिरुचिः सम्यग्दर्शनं खलु दर्शनम्। निसर्गाधिगमभेदात्तद् द्विधा मिद्यते पुनः ॥६॥ जैनर्जीवादयो भावास्सप्ततत्त्वमितीरितम् । अनादिनिधनो जीवो ज्ञानादिगुणलक्षणः ॥७॥
अष्टम सर्ग अथानन्तर भव्य जीवों के सेवनीय तथा अव्याबाध और निर्मल लक्ष्मी से युक्त उन केवली जिनेन्द्र को विद्याधरों के राजा अमिततेज तथा राजा अशनिघोष ने भक्ति पूर्वक नमस्कार किया ।।१।। अन्तःकरण की कलुषता का नाश हो जाने से जिनके नेत्र निर्मल हो गये थे ऐसे वे दोनों नम्रीभूत होकर भक्ति पूर्वक सभा में प्रविष्ट हुए ॥२॥ तदनन्तर स्वयंप्रभा सुतारा को लेकर वेग से वहां आ पहुंची और
वली भगवान् को आदर सहित नमस्कार कर बैठ गयी ॥३॥ तदनन्तर धर्मानुराग से जिसका बैर दूर हो गया है ऐसे विजयार्धपति-अमिततेज ने इन्द्र पूजित विजय केवली से धर्म पूछा ॥४॥
तदनन्तर उन विजय केवली ने कहा कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र धर्म है। यह धर्म ही प्राणियों के लिये कल्याणकारी है इससे अतिरिक्त अन्य नहीं ॥५॥ परमार्थ से तत्त्वार्थ में श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है । फिर वह सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम के भेद से दो प्रकार से विभक्त है ॥६॥ जीवादि पदार्थ ही सात तत्त्व हैं ऐसा गणधरादिक देवों ने कहा है । इनमें ज्ञानादि गुण रूप लक्षण से युक्त जीव अनादि निधन है ॥७॥ समस्त पदार्थों के सद्भाव को कहने वाला गुण ज्ञान
१ इन्द्रपूजितम् ।
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