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सष्ठम सर्ग:
७६ ततः शान्ति विहायान्यो रक्षोपायो न विद्यते । प्रस्यापि पौदनेशित्वं निरस्यामो महीपतेः ॥६३।। इत्युक्त्वा विरते तस्मिन् राज्यं वैश्रवणे प्रजाः । ताम्रीये स्थापयामास राजा चास्थाखिनालये ।।६४।। सप्तमेऽहनि संपूर्णे पपाताशनिरम्बरात् । मुकुटालङ कृते मूनि धनदस्य महीक्षितः ॥६५॥ ततः श्रीविजयस्तस्मै तन्मनोरथवाज्छितम् । दिदेशामोघजिह्वाय पमिनीखेटमेव सः ॥६६।। विद्याद्वयमथासाद्य मातुः श्रीविजयोऽन्यदा । रन्तु सुतारया साधं वनं ज्योतिर्वनं ययौ ॥६७।। गते तस्मिन्नयोत्पात दर्शनाकुलनागरम् ।नगरं पौदनं कश्चिद् व्योम्ना प्राप नभश्चरः ।।६८॥ क्रमाद्राजकुलद्वारमासाद्य स्वं निवेद्य स: । प्राविक्षत तत्सभां तस्यां नत्वाद्राक्षोत्स्वयंप्रभाम् ॥६६॥ तदृष्टिपातनिर्दिष्टमध्यास्य सुखमासनम् । प्रस्तावमय संप्राप्य प्रास्तावीदितिभाषितुम् ।।७०॥ भद्रं श्रीविजयायतद्वृत्तं किञ्चिग्निशम्यताम् । अहं दीप्रशिखः पुत्रः संमिन्नस्य महात्मनः ॥७१।। पित्रा सह सुखाराध्यमाराध्यामिततेजसम् । निवृत्य स्वपुरं गच्छन्नौषं रुदितध्वनिम् ॥७२।। ततो विमानमद्राक्षं रुदतीं तत्र च स्त्रियम् । मुहुर्धातुर्मुहुः पत्युविलपन्तीमथाख्यया ॥७३॥
इसलिये शान्ति को छोड़ कर रक्षा का अन्य उपाय नहीं है । फिर भी हम इनके पोदनपुर के स्वामित्व को दूर करदें अर्थात् इनके स्थान पर किसी अन्य को राजा घोषित करदें ॥६३॥
इसप्रकार कह कर जब मतिभषण मन्त्री चप हो गया तब प्रजा ने तामें का कबेर बना कर उस पर राज्य स्थापित कर दिया । और राजा जिनालय में स्थित हो गया।६४।। सातवां दिन पूर्ण होते ही राजा कुबेर के मुकुट विभूषित मस्तक पर आकाश से वज्र गिरा ।।६५।। तदनन्तर श्रीविजय ने उस अमोघजिह्व नामक आगन्तुक ब्राह्मण के लिये उसका मन चाहा पद्मिनीखेट नगर ही दे दिया ॥६६॥
किसी समय श्री विजय माता से दो विद्याएं लेकर सुतारा के साथ क्रीड़ा करने के लिये ज्योतिर्वन गया ॥६७। उसके चले जाने पर उत्पातों के देखने से व्याकुल नागरिक जनों से युक्त
आकाश से कोई विद्याधर पाया ॥६८।। क्रम से राजद्वार में जाकर उसने अपना परिचय दिया पश्चात् राजसभा में प्रवेश किया। वहां नमस्कार कर उसने स्वयंप्रभा को देखा ॥६६॥ स्वयंप्रभा के दृष्टिपात से बताये हुए प्रासन पर सुख पूर्वक बैठा । पश्चात् अवसर पा कर उसने इसप्रकार कहना शुरु किया ॥७०।। श्री विजय के लिये कल्याणकारी यह कुछ समाचार सुनिये । मैं महान् आत्मा संभिन्न का दीप्रशिख नामका पुत्र हूं ।।७१॥ सुख से आराधना करने योग्य अमिततेज की पिता के साथ आराधना कर जब मैं अपने नगर की ओर जा रहा था तब मैंने रोने का शब्द सुना ॥७२।। तदनन्तर विमान को और उसमें रोती हुई स्त्री को देखा । वह स्त्री बार बार भाई तथा पति का नाम लेकर विलाप कर रही थी ॥७३।। पश्चात् स्वामी का नाम सुन कर तथा स्त्री पर करुणा उत्पन्न
१ उत्पातानां दर्शनेन आकुला नागरा यस्मिस्तत् २ अवसरम् ३ सुखेनाराधनीयम् ।
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