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श्रीशांतिनाथपुराणम् अनन्तरं पितुः प्राप्य त्वं पदं संपदाधिकम् । चकर्थ सार्थकं नाम नामिताशेषराजकः ॥५१॥ एकदागामुकः कश्चिद् दृष्ट्वा श्रीविजयं द्विजः । सिंहासनस्थमित्याह रहसि प्राप्य चासनम् ॥५२॥ इतः पौवननाथस्य सप्तमे वासरे दिवः । मूर्धनि प्रध्वनन्नुच्चरशनैः पतिताशनिः ॥५३॥ इत्युक्त्वा विरते वारणी तस्मिन्पप्रच्छ स स्वयम् । कस्त्वं किमभिधानो वा कियग्नानं तवेति तम् ॥५४।। इति पृष्टः स्वयं राज्ञा ततोऽवादीत्स धीरधीः । बन्धुरं सिन्धुदेशेऽस्ति पद्मिनीखेटकं पुरम् ॥५५।। तस्मादमोघजिह्वाल्यस्त्वां द्विजातिरिहागमम् । पुत्रो विशारदस्याहं ज्योति नविशारदः ।।६।। इत्थमात्मानमावेद्य स्थितिमन्तं विसय॑ तम् । अप्राक्षीरसचिवानराजा स्वरक्षामशनेस्ततः ॥५७।। रक्षोपायेषु बहुषु प्रणीतेष्वथ मन्त्रिभिः । प्रत्याचिख्यासुरित्याह तां कथां मतिभूषणः ॥५८।। कुम्भकारकटं नाम शैलेन्द्रोपत्यकं पुरम् । अस्ति तत्रावसद्विप्रो दुर्गतश्चण्डकौशिकः ॥५६॥ अभूत्प्रणयिनी तस्य सोमश्रीरिति विश्रुता । भूतान्याराध्य सा प्रापदपत्यं मुण्डकौशिकम् ॥६०॥ जिघत्सो रक्षस: कुम्भावक्षितु पुत्रमन्यदा । भूतानामर्पयद्विप्रो गुहायां तेषायि सः॥६१।। तं तत्राप्य घसद्भीष्मः शिशुमाकस्मिक: "शयुः । को वा त्रातुमलं मृत्योर्षम मुक्त्वा शरीरिणाम्।।६२॥
को नम्रीभूत करते हुए तुमने अपना नाम सार्थक किया ।।५।। एक दिन किसी आगन्तुक ब्राह्मण ने श्रीविजय को सिंहासन पर स्थित देख एकान्त में प्रासन प्राप्त कर इस प्रकार कहा ॥५२॥ आज से सातवें दिन पोदनपुर नरेश के मस्तक पर जोर से गरजता हुआ वज्र वेगपूर्वक आकाश से गिरेगा ॥५३॥ इतना कह कर जब वह चुप हो गया तब अमिततेज ने उससे स्वयं पूछा कि तुम कौन हो? किस नामके धारक हो और तुम्हें कितना ज्ञान है ? ॥५४।।
इस प्रकार राजा के द्वारा स्वयं पूछे गये, धीर बुद्धि वाले उस आगन्तुक ब्राह्मण ने कहा कि सिन्धु देश में एक पद्मिनीखेट नामका सुन्दर नगर है ॥५५॥ वहां से मैं तुम्हारे पास यहां आया हैं अमोघजिह्व मेरा नाम है, मैं विशारद का पुत्र हूं तथा ज्योतिष ज्ञान का पण्डित हूं ॥५६।। इस प्रकार अपना परिचय देकर बैठे हुए उस ब्राह्मण को राजा ने विदा किया। पश्चात् मन्त्रियों से वज्र से अपनी रक्षा का उपाय पूछा ॥५७।। तदनन्तर मन्त्रियों ने बहुत सारे रक्षा के उपाय बतलाये परन्तु उन उपायों का खण्डन करने की इच्छा रखते हुए मतिभूषण मन्त्री ने इस प्रकार एक कथा कही ॥८॥
गिरिराज के निकट एक कुम्भकट नामका नगर है । उसमें चण्डकौशिक नाम वाला एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था ॥५६।। 'सोमश्री' इस नाम से प्रसिद्ध उसकी स्त्री थी। उसने भूतों की आराधना कर एक मण्डकौशिक नामका पुत्र प्राप्त किया ॥६०॥ कुम्भ नामका राक्षस उस पत्र को खाना चाहता था अतः उससे रक्षा करने के लिये ब्राह्मण ने वह पुत्र भूतों को दे दिया और भूतों ने उसे गुहा में रख दिया ॥६१॥ परन्तु वहां भी अकस्मात् आये हुए एक भयंकर अजगर ने उस पुत्र को खा लिया अतः ठीक ही है क्योंकि धर्म को छोड़ कर मृत्यु से प्राणियों की रक्षा करने के लिये कौन समर्थ है ? ॥६२॥
१ वज्रम् २ अत्तु मिच्छो। ३ भक्षयामास ४ अजगरः ।
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