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सप्तमः सगः
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वीक्ष्याभिनन्दनं मान्यं मुनि भव्याभिनन्दनम् । स धर्ममेकदा श्रुत्वा मुमुक्षुर्मनसाऽभवत् ॥४०॥ राज्यलक्ष्मी ततोऽपास्य तपोलक्ष्मीमशिश्रयत् । स विशेषज्ञतां स्वस्य ल्यापयन्निव तत्क्षणे ।।४१॥ धृतराज्यमरः पुत्रमर्ककोतिरजीजनत् । ज्योतिर्मालाभिधानायां नाम्नाथामिततेजसम् ॥४२॥ सोऽहं न तस्य सूनुत्वाखेचरेन्द्रस्य केवलम् । अपि स्वीकृतविद्यत्वादभूवं परमेश्वर ॥४३॥ अथाऽसावि पितृभ्यां मे मनोरमतमाकृतिः । 'सुतारलोचनच्छाया सुतारा नाम कन्यका ॥४४॥ ततः स्वयंप्रभा लेमे ज्येष्ठं श्रीविजयं सुतम् । विजयं च क्रमेणकां पुत्री ज्योतिःप्रभाभिधाम् ॥४५॥ राजा त्रिवर्गपारीणः प्रजापतिरथान्यदा । तपसे निरगाद्गेहाद्भव्यत्वप्रेरिताशयः ॥४६॥ पिहितानवमानम्य प्रपद्य स्वहितं तपः । शुक्लध्यानविशुद्धात्मा सिद्धि प्राप प्रजापतिः ॥४७।। अथ ज्योतिःप्रभा कन्या जग्राहामिततेजसम् । स्वयंवरे सुतारा च प्रीत्या श्रीविजयं प्रियम् ॥४८॥ त्रिपृष्टोऽथ यशःशेषो बभूव चिरकालतः । विजयोऽपि तपस्तप्त्वा लेमे केवलसम्पदम् ॥४६॥ अर्ककोतिस्ततः पुत्र विन्यस्यामिततेजसि । मयि राज्यं प्रववाज प्रणिपत्याभिनन्दनम् ॥५०॥
तथो धर्म सुन कर हृदय से मुमुक्ष-मोक्ष प्राप्त करने का इच्छक हो गया॥४०॥ तदनन्तर उसने उसी क्षरण अपनी विशेषज्ञता को प्रकट करते हुए के समान राज्य लक्ष्मी को छोड़कर तपो लक्ष्मी को ग्रहण कर लिया ॥४१॥ पश्चात् राज्य भार को धारण करने वाले अर्ककीर्ति ने ज्योतिर्माला नामक स्त्री से अमिततेज नामक पुत्र को उत्पन्न किया ॥४२॥ वह मैं न केवल विद्याधर राजा का पुत्र होने से परमेश्वर-उत्कृष्ट सामर्थ्यवान् हुआ था किन्तु विद्याओं को स्वीकृत करने से भी परमेश्वर हुअा था ॥४३॥
___ तदनन्तर हमारे माता पिता ने जिसकी आकृति अत्यंत सुन्दर थी, और जिसके नेत्रों की कान्ति उत्तम पुतलियों से सहित थी ऐसी सुतारा नामकी कन्या उत्पन्न की ।।४४।। पश्चात् स्वयंप्रभा ने श्रीविजय नामक ज्येष्ठ पुत्र, विजय नामक लघु पुत्र और ज्योतिप्रभा नामकी एक पुत्री क्रम से प्राप्त की ॥४५।। तदनन्तर जो धर्म अर्थ और काम इस त्रिवर्ग में पारंगत थे तथा भव्यत्व भाव से जिनका हृदय प्रेरित हो रहा था ऐसे प्रजापति महाराज तप के लिये घर से निकले ॥४६॥ पिहितास्रव मुनि को नमस्कार कर तथा आत्महितकारी तप को स्वीकृत कर शुक्लध्यान से जिनकी आत्मा विशुद्ध हो गयी थी ऐसे प्रजापति मुनिराज ने मुक्ति प्राप्त की ॥४७।।
तदनन्तर स्वयंप्रभा की पुत्री ज्योतिप्रभा कन्या ने अर्ककीति के पुत्र अमिततेज को ग्रहण किया और सुतारा ने स्वयंवर में श्रीविजय को अपना पति बनाया ॥४८॥ चिर काल बाद त्रिपृष्ठ मरण को प्राप्त हुआ और विजय ने भी तप तपकर केवलज्ञान रूप सम्पदा को प्राप्त किया ।।४।। तदनन्तर अर्ककीति ने मुझ अमिततेज पुत्र के लिये राज्य सौंपकर तथा अभिनन्दन गुरु को नमस्कार कर दीक्षा धारण कर ली ॥५०॥ तदनन्तर संपत्त्वि से परिपूर्ण पिता का पद प्राप्त कर समस्त राजाओं
१ सुष्ठुकनीनिकायुक्तलोचनकान्तिः २ एतन्नामधेयो नृपः ३ यश एव शेषो यस्य, मृतइत्यर्थः ।
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