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श्रीशान्तिनाथपुराणम् ततो मृगवती लेमे तनुजं विजयान्वितम् । 'अनिष्ठितयशोराशि त्रिपृष्ठाल्यं श्रियः पतिम् ॥२६॥ नृसिंहेनादिवयन स सिंह सिंहमादिना । सिंहोपप्लुतदेशस्य क्षेमकारः प्रजापतिः ॥३०॥ अश्वग्रीवोऽप्ययं चक्री नामिताशेषखेचरः । तेन घानिष्यते युद्ध तत्पुत्रेण कनीयसा ॥३१॥ मतस्तस्मै सुतां दत्स्व त्रिपृष्ठाय महात्मने । स · तमित्यनुशिष्याथं व्यरमखेचरेश्वरम् ॥३२॥ इन्दोमुंखेन सम्बन्धं पूर्णमास्याय भूपतेः । स तेनाप्यभ्यनुज्ञातः ससैन्यो या व्यगाहत ॥३३॥ स पोदनपुरं प्राप्य शुद्धऽह्नि शुभलक्षणाम् । स्वयंप्रभा त्रिपृष्टाय व्यतारी द्विधिपूर्वकम् ॥३४॥ स्वयंप्रमामनासाद्य समं विद्यापराधिपः । त्वरमारणो युधि क्रोधादश्वग्रीवः समुद्ययौ ॥३५॥ रूप्याद्रेर्नातिदूरेऽथ रथावर्ते महीभृति । रणः प्रववृते घोरो भूभृतां खेचरी समम् ॥३६।। वासुदेवस्त्रिपृष्टोऽभूदश्वग्रीवं निहत्य तम्। विजयो बलदेवश्च विजयोद्यधशोधनः ॥३७।। तौ वशीकृत्य चक्रेण विक्रान्तावद्ध भारतम् । प्रभौमानीव हृद्यानि सुखानि निरविक्षताम् ॥३८॥ अशेषितरिपुः शासद्विजयाद्ध मशेषता । स रेजे ख्यातसम्बन्धो मातुलश्चक्रवर्तिनः ॥३६॥
ने त्रिपृष्ठ नामका पुत्र प्राप्त किया जो विजय से सहित था, अपरिमित यश का स्वामी था तथा लक्ष्मी का पति था ।।२६।। सिह से उपद्रत देश का कल्याण करने वाले राजा प्रजापति ने सिह के समान गर्जना करने वाले जिस नर श्रेष्ठ के द्वारा सिंह का नाश कराया था ॥३०॥ समस्त विद्याधरों को नम्रीभूत करने वाला यह अश्वग्रीव चक्रवर्ती भी प्रजापति के छोटे पुत्र त्रिपृष्ठ के द्वारा युद्ध में मारा जायगा इसलिये उस महान् आत्मा त्रिपृष्ठ के लिये पुत्री देयो । इस प्रकार विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी से प्रयोजन की बात कह कर पुरोहित चुप हो गया ।।३१-३२॥
ज्वलनजटी ने इन्दु नामक विद्याधर के मुख से राजा प्रजापति के पास इस सम्बन्ध को पूर्ण करने का समाचार कहलाया। जब राजा प्रजापति ने भी स्वीकृत कर लिया तब वह सेना सहित आकाश मार्ग से चल पड़ा ॥३३॥ उसने पोदनपुर पहुंच कर शुद्ध दिन में त्रिपृष्ठ के लिये शुभ लक्षणों से युक्त स्वयंप्रभा विधि पूर्वक प्रदान कर दी ॥३४॥ इधर अश्वग्रीव भी स्वयंप्रभा को चाहता था परन्तु जब उसे नहीं मिली तब वह क्रोध से विद्याधर राजाओं के साथ शीघ्रता करता हया युद्ध के लिये उद्यम करने लगा ॥३५॥ तदनन्तर विजया पर्वत के निकट ही रथावर्त नामक पर्वत पर भूमिगोचरी राजानों का विद्याधरों के साथ घोर युद्ध हुआ ॥३६॥ उस अश्वग्रीव को मार कर त्रिपृष्ठ नारायण हुआ और विजय से जिसका यश रूपी धन बढ़ रहा था ऐसा विजय बलदेव हुआ ॥३७।। वे दोनों वीर चक्र के द्वारा अर्ध भरत क्षेत्र को वश कर स्वर्गीय सुखों के समान मनोहर सुखों का उपभोग करने लगे ॥३८॥
उधर जिसने समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया था तथा जिसका सम्बन्ध प्रसिद्ध था ऐसा चक्रवर्ती का मामा ज्वलनजटी समस्त विजयार्ध पर्वत पर शासन करता हुआ सुशोभित हो रहा था ॥३६॥ एक दिन वह भव्यजीवों को आनन्द देने वाले अभिनन्दन नामक माननीय मुनि के दर्शन कर
१ असमाप्तकीर्तिसमूहम् २ लघुपुत्रेण ३ स्वर्गसम्बन्धीनीव ४ शासनं कुर्वन् ।
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