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________________ सप्तमः सर्गः ७५ निरासे' चेतसस्तेन बाल्येऽपि शिशुचापलम् । २दित्सुना सर्वविद्यानामवकाशमिवात्मनि ॥१८॥ ततः क्रमात्तयोर्जज्ञे पुत्री नाम्ना स्वयंप्रभा । बिभ्राणा शोभनां मूर्तिमन्दवीव स्वयंप्रभा ॥१६॥ ज्योतीरथस्य तनयां ज्योतिर्मालामुपानयत् । अर्कोतिस्तत: कल्यां ज्योतिर्मालामिवापराम् ॥२०॥ तत्कलाकौशलं चित्रं कौतुकादिव वीक्षितुम् । स्वकाले तामथप्रापद्यौवनश्रीः शनैः शनैः ॥२१॥ तामेकदा पिता वीक्ष्य संपन्ननवयौवनाम् । तद्वरान्वेषणव्यग्रो बभूव सह मन्त्रिभिः ॥२२॥ ततो गहमुनौ स्निग्धे राजा 'वैवविदा मते । संशय्यास्थित संभिन्न संभिन्नाम्भोरुहाननः ।।२३॥ स वीक्ष्यानन्तरं भर्तु रित्याह विदिताशयः । प्रस्त्यत्र भारते देशो विश्रुतः सुरमाख्यया ॥२४॥ नगरं पौदनं यत्र विद्यते सधशोनिधिः । रक्षितामून्नृपस्तस्य प्रजापतिरितोरितः ॥२५॥ प्रधत्ताव्यतिरिक्ते द्वे स्वस्माद्भार्ये स भूपतिः । विङनाग इव भद्रात्मा मदरेखे मनोरमे ॥२६।। पाद्या जयावती नाम्ना द्वितीया मृगवती सती। तं वशीकृत्य ते कान्तं 'राजतः स्म गुरणाधिके ॥२७॥ अजायत जयावत्या सूनुः १°सूनृतवाविप्रयः । अजय्यो विजयो नाम "विजयश्रीविशेषकः ॥२८॥ उसने बाल्यावस्था में भी बाल्यकाल की चपलता चित्त से दूर कर दी थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों वह अपने आप में समस्त विद्याओं को अवकाश देना चाहता था ॥१८॥ तदनन्तर उन दोनों के ( ज्वलनजटी और वायुवेगा के ) क्रम से स्वयंप्रभा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । सुन्दर शरीर को धारण करती हुई वह पुत्री साक्षात् चन्द्रमा की प्रभा के समान जान पड़ती थी ।।१६।। तदनन्तर अर्ककीति ने ज्योतीरथ की पुत्री उस ज्योतिर्माला के साथ विवाह किया जो नीरोग थी तथा अन्य ज्योतिर्माला-दूसरी नक्षत्र पति के समान जान पड़ती थी ॥२०॥ पश्चात् अपना समय पाने पर धीरे धीरे स्वयंप्रभा को यौवन लक्ष्मी प्राप्त हुई । वह यौवन लक्ष्मी ऐसी जान पड़ती थी मानों कौतुक वश उसके विविध कलाकौशल को देखने के लिये ही आयी हो ॥२१।। एक समय पिता उसे नव यौवन से संपन्न देख, मन्त्रियों के साथ उसके योग्य वर खोजने के लिए व्यग्र हुआ ॥२२॥ तदनन्तर खिले हुए कमल के समान जिसका मुख था ऐसा राजा किसके साथ विवाह किया जाय और किसके साथ न किया जाय ऐसा संशय कर निर्णय के लिये उस पुरोहित पर निर्भर हुआ जो अत्यंत स्नेही तथा ज्योतिष शास्त्र के जानने वालों का सम्मान पात्र था ।।२३।। वह राजा की घनिष्ठता देख उसके अभिप्राय को जानता हुआ इसप्रकार कहने लगा। इस भरत क्षेत्र में सुरमा नाम से प्रसिद्ध देश है ॥२४।। जिस देश में पोदनपुर नामका नगर है । उत्तम कीर्ति का भाण्डार प्रजापति नाम से प्रसिद्ध राजा उस नगर का रक्षक है ॥२५।। जिस प्रकार दिग्गज दो मनोहर मद रेखाओं को धारण करता है उसीप्रकार वह भद्र प्रकृति वाला राजा अपने से पृथक न रहने वाली दो सुन्दर स्त्रियों को धारण करता था ॥२६॥ पहली स्त्री जयावती और दूसरी मृगवती नामकी थी । गुणों से परिपूर्ण ये दोनों स्त्रियां पति को वश कर सुशोभित हो रही थीं ॥२७।। जयावती के विजय नामका पुत्र हुअा जो सत्य तथा प्रिय वचन बोलने वाला था, अजेय था और विजय लक्ष्मी का तिलक था ।।२८।। पश्चात् मृगवती १ निरस्तम् २ दातुमिछुना ३ चान्द्रीप्रभा इव ४ नीरोगाम् ५ पुरोधसि ६ ज्योतिषज्ञानाम् ७ निर्णायकत्वेन स्थितोऽभूत ८ विकसितकमलवदनः । शोभेते स्म १० सत्यप्रियवचन। ११ विजयलक्ष्मीतिलकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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