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________________ ७४ श्रीशान्तिनाथपुराणम् ततस्तमन्वयुक्तेति खेचरेन्द्रोऽच्युतेश्वरम् । अदृष्टोऽपि मया स्वामिन्दृष्टवत्प्रतिमासि मे ॥७॥ अयमन्तःस्फुरत्प्रीति ष्टिपात: प्रभोस्तव । सम्बन्धेन विना क्षुद्रे मादृशे कि प्रवर्तते ॥८॥ मयाप्यन्तःप्रविश्यैवं 'वयात्येन यदुच्यते । तद्ध तुमिति मन्येऽहमतीतभवसंभवम् ॥६॥ न तवाविदितं किञ्चिद्रूपिष्विन्द्रस्य वर्तते । ब्रूहि त्वं प्रीतिहेतु मे व्यरंसोदित्युदीर्य सः ॥१०॥ तेन पृष्टः प्रसह्य वं इन्द्रः पत्या नभःसदाम् । तस्यात्मनश्च सम्बन्धमिति वक्तु प्रचक्रमे ॥११॥ प्रथास्ति द्यु सदां वासो विजया भिधो गिरिः । स्थायामेन मितं येन द्वीपेऽस्मिन्नद्ध भारतम् ॥१२॥ तत्रास्ति दक्षिणण्यां नगरं रथनूपुरम् । तत्रावसज्जटी नाम ज्वलनादि:प्रभुः परम् ॥१३॥ 3महाकुलीनमासाद्य विद्याः सर्वा बभासिरे। यं च तेजस्विनां नाथं शारदार्कमिव त्विषः ॥१४।। प्रियंकरः सतां नित्यं द्विषतां च भयंकरः । क्षेमंकरः प्रजानां च 'प्रकृत्यैव बभूव सः ॥१५॥ रामा मनोरमाकारा वायुवेगेति विश्रुता । महाकुला प्रिया तस्य प्रेमभूमिरभूत्परा ॥१६॥ तस्यामजीजनत्सूनुमकीति परंतपम् । प्रभात इव स प्राच्यामकं 'पकवल्लभम् ॥१७॥ स्वामिन् ! यद्यपि मैंने आपको देखा नहीं है तो भी आप दिखे हुए के समान जान पड़ते हैं ।।७॥ हे प्रभो ! जिसके भीतर प्रीति स्फुरित हो रही है ऐसा यह आपका दृष्टिपात सम्बन्ध के बिना मुझ जैसे क्षुद्र पुरुष पर क्यों प्रवर्तता ॥८।। मैं भी भीतर प्रवेश कर जो धृष्टता से इस प्रकार कह रहा हूँ उसका कारण पूर्वभव से सम्बन्ध रखता है ऐसा मैं मानता हूँ ।।६।। रूपी पदार्थों में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो इन्द्रपद को धारण करने वाले आपके लिये अविदित हो अतः आप मेरी प्रीति का कारण कहिये यह कह कर वह विरत हो गया ॥१०॥ उस विद्याधर राजा के द्वारा इसप्रकार अाग्रह पूर्वक पूछा गया इन्द्र उसका और अपना सम्बन्ध कहने के लिये इस तरह उद्यत हा ॥११॥ अथानन्तर इस जम्बूद्वीप में विद्याधरों का निवास भूत विजयाई नामका वह पर्वत है जिसने अपनी लम्बाई से आधे भरत क्षेत्र को नाप लिया है ॥१२॥ उस पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनूपुर नामका नगर है उसमें ज्वलन जटी नामका राजा रहता था ॥१३॥ उच्च कुलोत्पन्न तथा तेजस्वी जनों के स्वामी जिस राजा को प्राप्त कर समस्त विद्याएं ऐसी सुशोभित होने लगी थी जैसी शरद् ऋतु के सूर्य को प्राप्त कर कान्ति अथवा किरणें सुशोभित होने लगती हैं ।।१४।। वह स्वभाव से ही निरन्तर सज्जनों का प्रिय करने वाला, शत्रों का भय करने वाला और प्रजाजनों का कल्याण करने वाला था ॥१५॥ उसकी वायुवेगा नाम से प्रसिद्ध सुन्दर तथा उच्चकुलीन प्रिया थी। यह उसकी बहुत भारी प्रीति पात्र थी ।।१६।। ज्वलनजटी ने उसमें शत्रुओं को संतप्त करने वाला अर्ककीति नामका पुत्र उस तरह उत्पन्न किया जिस तरह प्रातःकाल पूर्व दिशा में कमलों को अत्यन्त प्रिय ( पक्षमें लक्ष्मी के अत्यन्त वल्लभ ) सूर्य को उत्पन्न करता है ।।१७।। १ धृष्टतया २ ज्वलनजटी नामधेय: ३ महाकुलोत्पन्नम् ४ कान्तयः ५ स्वभावेनैव ६ लक्ष्म्येकप्रिय, कमलैकप्रियञ्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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