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सप्तमः सर्गः *answeatment
'प्रयाप्रतिघमत्युद्ध मन्तःसंकल्पकल्पितम् । स तत्राप्यष्टधैश्वयं निर्ववाराच्युतेश्वरः ॥१॥ नन्दीश्वरमहं कृत्वा स व्यावृत्यान्यदा ययो । वन्दारमन्दिरं जैनं जम्बूद्वीपस्य "मन्वरम् ॥२॥ षोडशापि स वन्दित्वा तत्राम्यय॑ जिनालयान् । अन्ते जिनालयेऽद्राक्षीकञ्चन 'धु सदां पतिम् ॥३॥ तस्मादिन्द्रोऽप्यसो दृष्टिं स्वां नाक्रष्टुं तवाशकत् । अनेकभवसम्बन्धबन्धुस्नेहेन कोलिताम् ॥४॥ खेवरेन्द्रोऽपि तदृष्टिं प्राप्यान्तःस्नेहनिर्भरः । तं ननाम प्रणामेन 'ज्ञातेयमिव सूचयन् ॥५॥ मच्युतेन्द्रः परावर्त्य देशावधिमथ क्षणात् । स तस्य स्वस्य चाद्राक्षीत्संबन्धं च भवः स्वयम् ॥६॥
सप्तम सर्ग
अथानन्तर वह अच्युतेन्द्र उस अच्युत स्वर्ग में भी निर्वाध, अत्यन्त श्रेष्ठ, और मनके संकल्प मात्र से प्राप्त होने वाले आठ प्रकार के ऐश्वर्य को प्राप्त हुआ ।।१।। एक समय वह नन्दीश्वर पूजा करने के बाद लौटकर जिनालयों की वन्दना करने की इच्छा से जम्बूद्वीप के सुमेरु पर्वत पर गया ॥२॥ वहां सोलहों जिनालयों की वन्दना और पूजा कर उसने अन्तिम जिनालय में किसी विद्याधर राजा को देखा ॥३॥ वह इन्द्र भी अनेक भव सम्बन्धी बन्धु के स्नेह से कीलित अपनी दृष्टि को उस विद्याधर राजा पर से खींचने के लिये समर्थ नहीं हो सका ॥४॥ उसकी दृष्टि को प्राप्त कर जो आन्तरिक स्नेह से भरा हुआ था ऐसे विद्याधर राजा ने भी जाति सम्बन्ध को सूचित करते हुए समान प्रणाम द्वारा उस अच्युतेन्द्र को नमस्कार किया ।।५।।
तदनन्तर अच्युतेन्द्र ने देशावधिज्ञान का उपयोग कर उसका और अपना अनेक भवों का सम्बन्ध स्वयं देख लिया ॥६॥ पश्चात् विद्याधर राजा ने उस अच्युतेन्द्र से इस प्रकार पूछा कि हे
१ अप्रतिपक्षम् २ अतिश्रेष्ठम् ३ अणिमादिभेदेनाष्टविधश्वर्यम् ४ नन्दीश्वर द्वीपे पूजां विधाय ५ मेरु पर्वतम् ६ दिवि सीदन्तीति द्यु सदस्तेषाम् विद्याधराणाम् ७ ज्ञातिसम्बन्धम् ।
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