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श्री शान्तिनाथपुराणम्
त्यक्त्वा सिद्धगिरौ तनुं ' तनुतरामाराध्य रत्नत्रयं संप्राप्याच्युतमच्युत स्थितियुतो देवाधिपत्यं दधौ । प्रागानचे जिनं ततः सुरगणैस्तस्याभिवेको महान् । farmer विद्वतावधिदृशः सत्संपदामीशितुः ।। १२३ ॥१
इत्यसगकृतौ शान्तिपुराणे श्रीमदपराजित विजयो नाम * षष्ठः सर्गः *
करते हुए अपराजित मुनि अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे । परीषहों के जीतने से जो प्रत्यन्त शूर थे ऐसे धीर वीर मुनि घोर तप करने लगे ।। १२२ । । सिद्धगिरि पर अत्यन्त कृश शरीर को छोड़कर तथा रत्नत्रय की आराधना कर वे अच्युत स्वर्ग को प्राप्त हुए और वहाँ अविनाशी – दीर्घकाल स्थायी स्थिति से युक्त हो इन्द्रपद को धारण करने लगे । अच्युतेन्द्र ने पहले जिनेन्द्रदेव की पूजा की पश्चात् पुण्योदय से जिनका अवधिज्ञानरूपी नेत्र वृद्धि को प्राप्त हुआ था तथा जो उत्तम संपदाओं के स्वामी हुए थे ऐसे उन प्रच्युतेन्द्र का देव समूह ने महाभिषेक किया ।। १२३ ।।
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इस प्रकार महाकवि प्रसग द्वारा रचित शान्तिपुराण में अपराजित की विजय का वर्णन करने वाला षष्ठ सर्ग समाप्त हुआ ।
१ अतिकृशाम् २ अच्युतनामस्वर्गम् अपराजिता च्युतेन्द्र संभवो नाम ब० 1
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