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________________ षष्ठ सगं । ७१ सधीरमिति तामुक्त्वा मुमोच तपसे पिता । वत्र्त्स्यन्तीं सत्पथे कन्यां साधुः को नानुमोदते ।। ११४ । । गुरु नत्वा यथावृद्ध निरगामि गृहात्तया । ग्रावहिस्तोरगं पित्रा सस्नेहमनुयातया ॥११५॥ तपः प्रति यथा यान्ती साऽदोपि न तथा पुरा । भव्यता हि परा भूषा सत्त्वानां सत्वशालिनाम् ॥ ११६॥ प्रपद्य सुव्रतां नत्वा दीक्षां सह सखीजनेः । नाम्ना च क्रियया 'चासीत्सुमतिः सुमतिस्तदा ॥ ११७॥ भुञ्जानोऽनन्तवीर्योऽपि भोगान्मोगोन्द्र सन्निभः । पूर्वारणामनयल्लक्षामशीतिश्चतुरुत्तराम् ॥ ११८ ॥ रोगादिभिरनालीढः शयानः शयनेऽन्यदा । श्रायासेन विनायासीत्स ४ जीवनविपर्ययम् ॥ ११६ ॥ भ्रातृशोकं निगृह्यान्तः पटुप्रस र मप्यसौ । स्पृहयालुरमूद्धीरस्तपसे लाङ्गलायुधः ।। १२० ।। ततो धीरो गरीयान्सं राज्यभारमरिञ्जये । ज्येष्ठे न्यवीविशत्पुत्रे स्वस्मिन्नुपशमं च सः ।। १२१ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् लक्ष्मीं सप्तशतैः समं नृपतिभिस्त्यक्त्वा विशुद्धाशये भक्त्या भूरियशोयशोधरर्यात नत्वा दधानं तपः । वैराग्यादपराजितोऽजनि मुनिः कुर्वंस्तपस्यां परां रेजे शूरतरः परीषहजयाद्धीरस्तपस्यत्यसौ ।।१२२ ।। मुझे भी चाहने योग्य उत्तम ग्रवस्था को प्राप्त कराया है ।। ११३ ।। इसप्रकार धैर्य के साथ कह कर पिता ने उसे तप के लिये छोड़ दिया । ठीक ही है क्योंकि समीचीन मार्ग में प्रवृत्ति करने वाली कन्या को कौन सत्पुरुष अनुमति नहीं देता है ? ।। ११४॥ जो जैसे वृद्ध थे तदनुसार गुरुजनों को नमस्कार कर वह घर से निकल पड़ी। बाह्य तोरण तक पिता उसे स्नेहसहित पहुंचाने के लिये आया था ।। ११५ ।। वह तप के लिये जाती हुई जैसी देदीप्यमान हो रही थी वैसी पहले कभी नहीं हुई । वास्तव में भव्यता ही धैर्यशाली जीवों का उत्कृष्ट आभूषण है ।। ११६ ।। सुव्रता प्रार्थिका को नमस्कार कर तथा सखीजनों के साथ दीक्षा ग्रहण कर उस समय सुमति नाम और क्रिया- दोनों से सुमति समीचीन बुद्धि की धारक हुई थी ।। ११७॥ इधर भोगों को भोगते हुए धरणेन्द्र तुल्य अनन्तवीर्य ने भी चौरासी लाख पूर्व व्यतीत कर दिये ।। ११८ ।। जो रोगादि से आक्रान्त नहीं था ऐसा अनन्तवीर्य, किसी समय शय्या पर सोता हुआ बिना मृत्यु को प्राप्त हो गया ।। ११६ ॥ भाई का शोक यद्यपि हृदय में बहुत अधिक विस्तार को प्राप्त था तो भी उसे रोककर धीर वीर बलभद्र - प्रपराजित तप के लिये इच्छुक हो गये ।। १२० ।। तदनन्तर धैर्यशाली अपराजित ने राज्य का गुरुतरभार अरिंजय नामक ज्येष्ठ पुत्र पर रक्खा और अपने आपमें उपशम भाव को स्थापित किया ।। १२१ ॥ विशुद्ध अभिप्राय वाले सात सौ राजाओं के साथ लक्ष्मी का परित्याग कर तथा यशस्वी और तपस्वी यशोधर मुनि को नमस्कार कर अपराजित वैराग्य के कारण मुनि हो गये । उत्कृष्ट तपस्या १ सुमतिनाम्नी २ सुष्ठु मतिर्यस्याः सा ३ धरणेन्द्र सदृशः ४ मरणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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