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श्रीशांतिनाथपुराणम् मच्चिन्तां प्रविहायार्ये 'स्वमतो धाम साषय । देवी सुमतिरित्युक्त्वा प्राञ्जलिविससर्ज ताम् ॥१०४॥ तस्यामथ प्रयातायां देव्यामित्याह सा सखीः । मावबुद्ध मृषेत्येतत्सत्यं देव्या यदीरितम् ॥१०॥ वृथव विषयासङ्गान क्लिशित्वा केवलं गृहे । प्रारिणति प्राकृतो लोकस्तत्कि ब्रूत सतां मतम् ॥१०६।। धर्म "बुभुत्सवः सार्वमेत यामस्तपोवनम् । यतध्वं व्रतशोलाको कृषीध्वं स्वहितं तपः ॥१०७॥ इति धर्म स्वसंसक्तकन्यानां प्रतिपाद्य सा । मिरास्थत सभोद्देशं समं भोगाभिवाञ्छया ॥१०॥ ततः स्वभवनं गत्वा सुमतिः पितरौ'क्रमात् । प्रापृच्छते स्म तपसे यास्यामीति प्रणम्य सा ॥१०॥ रुवित्वा केवलं माता तूष्णीमास्त निरुत्तरा । बाल्यात्प्रभृति तच्चित्तं जानती धर्मवासितम् ॥११०॥ मशस्य पताकेयं महासत्त्वेति तां पिता । बह्वमंस्त गृहासक्तं दीनमन्यं स्वमञ्जसा ॥१११॥ अथ तां निजगादेति तस्याः स्नेहेन चेतसा । विषीदन्मोदमानश्च तत्तपोवाञ्छया पिता ॥११२॥ अमुना व्यवसायेन त्वया नात्मव केवलम् । अनायि स्पृहणीयत्वं सागन्ध्या सप्ययं जनः ॥११३।।
निरर्थक हो जायगा ॥१०३।। हे आर्ये ! मेरी चिन्ता छोड़ कर अब आप अपने स्थान पर जाइये, इस प्रकार देवी से कह कर सुमति ने उसे हाथ जोड़कर विदा किया ॥१०४॥
तदनन्तर उस देवी के चले जाने पर सुमति ने अपनी सखियों से कहा-तुम इसे झठा मत समझो, देवी ने जो कुछ कहा है वह सत्य है ॥१०५॥ साधारण प्राणी-अज्ञ मानव, विषयासक्ति के कारण घर में क्लेश उठाकर व्यर्थ ही जीता है वह क्या सत्पुरुषों को इष्ट हो सकता है ? कहो ॥१०६।। आओ, सर्वहितकारी धर्म को जानने की इच्छा रखती हुई हम तपोवन को चलें, व्रतशील आदि में प्रयत्न करो तथा आत्महितकारी तप करो ॥१०७॥ इसप्रकार अपने संपर्क में रहने वाली कन्याओं को धर्म का प्रतिपादन कर उसने भोगाभिलाषा के साथ सभा का स्थान छोड दिया। भावार्थ-स्वयंवर सभा से वापिस चली गयी ॥१०८।।
तदनन्तर अपने भवन जाकर सुमति ने क्रम से माता पिता को प्रणाम किया और 'मैं तप के लिये जाऊँगी' ऐसा उनसे पूछा ॥१०६।। माता केवल रोकर चुप बैठ रही, उससे कुछ उत्तर देते नहीं बना। क्योंकि वह बाल्यावस्था से ही उसके चित्त को धर्म के संस्कार से युक्त जानती थी॥११०।। यह मेरे वंश की पताका है, महा शक्तिशालिनी है यह कह कर पिता ने उसका बहुमान किया-उसे बहुत बड़ा माना और गृह में आसक्त रहने वाले अपने आपको सचमुच ही दीन माना ॥११॥ तदनन्तर जो उसके स्नेह के कारण मन से दुखी हो रहा था और उसके तप ग्रहण करने की इच्छा से हर्षित हो रहा था ऐसे पिता ने उससे इसप्रकार कहा ॥११२।। इस निश्चय से तुमने न केवल अपने आपको चाहने योग्य उत्तम अवस्था को प्राप्त कराया है किन्तु अपने सम्बन्ध से इस जन को अर्थात्
१ स्वकीयम् २ अतोऽने ३ गच्छ ४ बोद्ध मिच्छव: ५ सर्वहितकरम् ६ मातापितरौ • सौगन्ध्यात् ब. ७ सम्बन्धात् ।
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