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श्रीशान्तिनाथपुराणम् श्रुत्वाय स्वामिनो नाम स्त्रीकारुण्याच्च तत्क्षने । समं पित्रा मयास्यायि यानस्थाने 'युयुत्सया ॥७४।। यावन शस्त्रमावत रिपुस्तावत्सव स्नुषा । विमानप्राजिरे स्थित्वा मामवादीदं वचः ॥७॥ ज्योतिवनेतिसंधाय विद्यया स्वामिनं मम । बलाबशनिघोषो मां नयति स्वपुरीमयम् ।।७६॥ परित्रायस्व मन्नाथ मित्युडीर्य तया ततः। पहं न्यतिषि क्षिप्रं शत्रुणाशङ्कप वीक्षितः ।।७।। सुतारारूपधारिण्या विद्यया व्याकुलीकृतम् । कुक्कुटाहि विषव्याजान्मिथ्येव मृतथा तया ॥७॥ तत्राद्राक्षं चितारूढं तामावाय महीक्षितम् । प्रयासीत्क्वापि सा विद्या पित्रा निस्सिता मम ॥७॥ ततो विस्मित्य राजेन्द्रः किमेतदिति मे गुरुम् । प्रमाक्षीतस्य संमिन्नस्तदुदन्तमचीकपत ॥०॥ सुताराहरणं श्रुत्वा राजेन्द्रो रथनूपुरम् । संमिन्नाभिसरोऽयासोन्मां विसयं स्वदन्तिकम् ॥११॥ तहाामित्यरं तस्याः प्रणीय विरराम सः। स्वयंप्रभापि तेनैव सहार रथनूपुरम् ।।२।। तत्पुरं प्राप्य सा व्योम्ना प्राविशद्राजमन्दिरम् । जद्धिःप्रत्यभिज्ञाय वीक्ष्यमारणा मनीजन: ॥३॥ सुताराविरहम्लानं प्रभातेन्दुमिवात्मजम् । सादाक्षीखेचरेन्द्रं च प्रत्युत्थाय कृतानतिम् ।।८४॥ तयोरने ततःस्थित्वा क्षणमात्रमिवासने । स्नुषास्नेहास्पतद्वाष्पमन्त त्वेत्युवाच सा ॥८॥
होने के कारण मैं युद्ध करने की इच्छा से पिता के साथ विमान के आगे खड़ा हो गया ॥७४।। जब तक शत्रु शस्त्र नहीं ग्रहण करता है तब तक तुम्हारी वधू ने विमान के प्राङ्गण में खड़ी हो कर मुझसे यह वचन कहा ॥७५।। ज्योतिर्वन में विद्या से मेरे पति को छल कर यह अशनिघोष मुझे बलपूर्वक अपनी नगरी को लिये जा रहा है ।।७६।। मेरे पति की रक्षा करो इस प्रकार कह कर उसने शत्र से आशङ्कित हो मुझे देखा और मैं तत्काल वहां से लौट पड़ा ॥७७।। बात यह हुई कि सुतारा का रूप धारण करने वाली विद्या कुक्कुट सर्प के विष के बहाने झूठ मूठ ही मर गयी । उसे सचमुच ही मृत जान कर राजा श्रीविजय बहुत व्याकुल हुआ तथा उसे लेकर उसके साथ चिता पर आरूढ हो गया ( इसी के बीच अशनिघोष वास्तविक सुतारा को हर कर ले गया ) मेरे पिता ने उस विद्या को ललकारा जिससे वह कहीं भाग गयी ॥७८-७९।। पश्चात् आश्चर्य चकित हो राजाधिराज श्रीविजय ने 'यह क्या है' इस तरह मेरे पिता से पूछा । संभिन्न ने सुतारा का समाचार उससे कहा ॥५०॥ सतारा का हरण सुन कर राजाधिराज श्रीविजय मुझे आपके पास भेजकर संभिन्न के साथ रथनपर गये हैं ॥५१।। इस प्रकार शीघ्र ही सुतारा का समाचार सुना कर दीप्रशिख विरत हो गया । स्वयंप्रभा भी उसी के साथ रथनूपुर गयी ॥२॥
.. उस नगर को प्राप्त कर स्वयंप्रभा ने आकाश से राजभवन में प्रवेश किया । वृद्ध स्त्री पुरुष
न कर उसे देखने लगे ॥८३।। वहाँ उसने, सुतारा के विरह से जो म्लान हो रहा था तथा प्रातः काल के चन्द्रमा के समान जान पड़ता था ऐसे पुत्र को और उठ कर नमस्कार करने वाले राजा को देखा ॥८४॥ उन दोनों के आगे क्षण भर आसन पर बैठ कर तथा वधू के स्नेह से पड़ते हुए आंसुओं
१ योद्ध मिच्छया २ साधं जगाम ३ वृद्ध : ४ स्त्रीपुरुषः
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