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________________ श्रीशान्तिनाथपुराणम् जनानामङ गुलिच्छायां स्थातुं नात्राहमुत्सहे । तादृशस्य सुता भूत्वा दमितारेमहात्मनः ॥६॥ हुयन्ती भूमिमायाता भवत्प्रीतिनिबन्धनात् । 'तिष्ठासुरपि तत्रैव गुरोः केवलिनोऽन्तिके ॥६२॥ न कार्य युधयोः किञ्चिद् वृथा विधृतया मया। नृशंसां माशी पापां कः स्वीकुर्यात्सचेतनः ॥६३॥ इत्युवारमुवीर्यवं भारती विरराम सा । देहमात्रेण तत्रास्थाच्चेतसैत्य तपोवनम् ॥६४॥ ततो नयति सा सान्त्वैस्ताभ्यां न च विलोमनः । जने विरागमार्गस्थे किमुपायाः प्रकुर्वते ॥६॥ तत: कन्यासहस्रः सा चतुभिः परिवारिता । कनकधीः प्रवद्राज जिनं नत्वा स्वयंप्रभम् ।।६६॥ प्रथाजनि जनी रूपलावण्या स्थितिशालिनी । महिषी विरजा नाम्नी सीरपाणेमनोरमा ॥६७॥ तस्यामन्तःप्रसन्नायां सुता भास्वत्प्रभाधराम् । सोऽजीजनच्छरत्कालः सरस्यामिव पमिनीम् ॥६८॥ तद्रूपसदृशीं प्रज्ञा भाविनों स वितयं ताम् । पाख्यया सुमति चक्रे चक्रे शेन सहकदा। ६६॥ शैशवेऽपि परा भक्तिरभूतस्या जिनेश्वरे । साऽबोधि विबुषोपास्या संसारस्याप्यसारताम् ॥५०॥ कलानां सकलापूरि चन्द्रमूतिरिवौजसा । दधाना दीपि लावण्यं तृणीकृत्य जगत्त्रयम् ॥७१।। तथा परमार्थ से जानने योग्य तत्त्व को जानकर घर में खड़े रहते हैं ? ॥६०।। मैं वैसे महान् आत्मा दमितारि की पुत्री होकर यहाँ मनुष्यों की अंगुलि सम्बन्धि छाया में स्थित रहने के लिये उत्साहित नहीं हूं ॥६१।। मैं वहीं केवली गुरु के समीप ठहरना चाहती थी परन्तु आप लोगों की प्रीति के कारण इतनी भूमि तक आयी हूँ ॥६२।। व्यर्थ ही यहाँ रुकने वाली मुझसे आपका कोई कार्य भी सिद्ध नहीं होता क्योंकि मुझ जैसी क र पापिनी कन्या को कौन सचेतन स्वीकृत करेगा? ॥६॥ इस प्रकार की उदार वाणी कह कर वह चुप हो रही ! वास्तव में वह शरीर मात्र से वहाँ स्थित थी चित्त से तो तपोवन पहुंच चुकी थी ॥६४।। बलभद्र और नारायण उसे सान्त्वनाओं तथा नानाप्रकार के प्रलोभनों के द्वारा अपने निश्चय से नहीं लौटा सके यह ठीक ही है क्योंकि वैराग्य के मार्ग में स्थित मनुष्य के विषय में उपाय क्या कर सकते हैं ? ॥६५।। तदनन्तर चार हजार कन्याओं के साथ कनकश्री ने स्वयंप्रभ जिनेन्द्र को नमस्कार कर दीक्षा धारण कर ली ॥६६।।। अथानन्तर बलभद्र अपराजित की रूप लावण्य से सहित तथा मर्यादा से सुशोभित विरजा नाम की सुन्दर रानी थी ।।६७।। अन्तरङ्ग से प्रसन्न रहने वाली उस रानी में बलभद्र ने देदीप्यमान प्रभा को धारण करने वाली पुत्री को उस प्रकार उत्पन्न किया जिसप्रकार की शरद काल भीतर से स्वच्छ रहने वाली सरसी में कमलिनी को उत्पन्न करता है ॥६८।। उसके रूप के समान होने वाली बुद्धि का विचार कर बलभद्र ने एक समय नारायण के साथ उस पुत्री का नाम सुमति रक्खा । भावार्थ-जैसा इसका अद्वितीय रूप है वैसी ही इसकी अद्वितीय बुद्धि होगी ऐसा विचार कर बलभद्र अपराजित ने नारायण के साथ सलाह कर पुत्री का सुमति नाम रक्खा ॥६६॥ बालावस्था में भी उसकी जिनेन्द्र भगवान् में परमभक्ति थी तथा विद्वानों के द्वारा उपासनीय वह संसार की भी असारता को जानतो थो॥७०।। अनेक कलाओं से सहित वह पुत्रो चन्द्रमूर्ति के समान कलाओं के प्रोज से परिपूर्ण १ स्थातुमिच्छु : २ राम् ३ बलभद्रस्य ४ ज्ञातवती ५ दीप्यते स्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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