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________________ षष्ठ सर्गः तस्याः सौन्दर्यमप्यापि विकसनवयौवनम् । न चक्षुः पश्यतामेव सवितकं च मानसम् ॥७२॥ तामेकदा पिता वीक्ष्य 'न्यग्रोषपरिमण्डलाम् । कस्मै दास्ये शुभामेनामिति चिन्तातुरोऽभवत् ॥७३॥ अनुरूपं ततस्तस्या नादाक्षीदर्शनप्रियम् । स वरं कञ्चन क्षात्रे संमन्त्र्यापि स्वमन्त्रिभिः ॥७४॥ तत्प्रार्थनाकुलान्सर्वान् राजन्यानप्यवेत्य सः । प्रविरुद्ध यथाप्राप्तं स्वयंवरमघोषयत् ॥७॥ प्रागतं तत्समाकर्ण्य २राजकं दूतवाक्यतः । प्रकरोद्भमिनायोऽसौ तां पुरीमथ सोत्सवाम् ॥७६।। अन्योन्यस्पर्ट याम्येष तल्लिप्साव्याकुलीकृताः । अध्यवात्सुरसंकीरणं तदुद्यानानि भूमिपाः ॥७७॥ अवैकस्मिन्विशुद्धऽह्नि शुद्धान्त कृतमण्डना । तत्कालोचितयानेन स्वयंवरसभामगात् ॥७॥ सुरूषां तामयालोक्य चन्द्रमूर्तिमिवाम्बुषिः । अन्तश्चचाल धीरोऽपि राजलोकः स तत्क्षणे ॥७॥ राज्ञां समन्ततो नेत्रलुटपमानाननश्रियम् । तामित्यूचे विमानस्था काचिद्देवी महद्धिका ।।८०॥ थी तथा लावण्य को धारण करती हुई वह तीनों लोकों को तिरस्कृत कर देदीप्यमान हो रही थी ॥७१।। खिलते हुए नव यौवन से युक्त वह सौन्दर्य भी उसे प्राप्त हुआ था जिसे देखने वाले मनुष्यों का न केवल नेत्र किन्तु मन भी विचार में पड़ जाता था ॥७२॥ एक दिन जिसकी कमर पतली थी और स्तनों का भार अधिक था ऐसी उस पुत्री को देख कर पिता इस चिन्ता में पड़ गया कि यह शुभ पुत्री किसके लिये दूंगा ॥७३।। तदनन्तर मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करके भी वह क्षत्रियों में किसी ऐसे वर को नहीं देख सका जो पुत्री के अनुरूप सुन्दर हो ।।७४।। इधर उसे यह भी विदित हुआ कि सब राजकुमार उसकी चाह से पाकुल हो रहे हैं-उसे चाह रहे हैं तब उसने विरोध रहित यथावसर स्वयंवर की घोषणा करा दी। भावार्थ-अनेक राजकुमारों की मांग होने पर जिसे पुत्री नहीं दी जायगी वह विरोधी हो जायगा। इसलिये इस अवसर में स्वयंवर ही अनुकूल उपाय उसे दिखा । स्वयंवर में पुत्री जिसे पसन्द करेगी उसे वह देदी जायगी, यह सब विचार कर पिता ने स्वयंवर की घोषणा करा दी ।।७५।। _तदनन्तर दूत के कहने से राजाओं को पाया हुआ सुनकर भूपति अपराजित ने उस नगरी को उत्सव से युक्त किया ।।७६॥ राजपुत्री को प्राप्त करने की इच्छा से व्याकुलता को प्राप्त हुए राजा परस्पर की स्पर्धा से आकर नगरी के बगीचों में अलग अलग ठहर गये ॥७७।। तदनन्तर अन्तःपुर के द्वारा जिसे वस्त्राभूषण पहिना कर सुसज्जित किया गया ऐसी सुमति, किसी उत्तम दिन उस समय के योग्य वाहन के द्वारा स्वयंवर सभा में गयी ॥७८। जिस प्रकार चन्द्रमूर्ति को देख कर समुद्र भीतर ही भीतर चञ्चल हो उठता है-लहराने लगता है उसी प्रकार उस सुन्दरी को देख कर धैर्यवान् राजा भी तत्क्षण भीतर ही भीतर-मन में चञ्चल हो उठे-उसे शीघ्र ही प्राप्त करने के लिये उत्कण्ठित हो गये ॥७६।। सब ओर से राजाओं के नेत्रों द्वारा जिसके मुख की शोभा लूटी जा रही थी ऐसी उस सुन्दरी से विमान से बैठी बड़ी ऋद्धियों की धारक कोई देवी इस प्रकार कहने लगी ॥८॥ १ यस्याः स्त्रियाः स्तनो समुत्त ङ्गो कटिश्च कृशा भवति सा न्यग्रोधपरिमण्डला कथ्यते २ राजसमूहम् ३ लब्धुमिच्छा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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