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षष्ठ सर्ग: ६५ ता धन्यास्ता महासत्वा यासां 'वाध्यतथा विना । यौवनं समतिक्रान्तं ताः सत्यं कुलदेवताः ॥४६॥ मम दह्यमानाया मनसो निर्वृतिः कुतः । सुखं हि नाम जीवानां भवेच्चेतसि 'निर्वृते ॥ ५० ॥ तस्मात्प्रव्रजनं श्रेयो न श्रेयो मे गृहस्थता । कलङ्कक्षालनोपायो नान्योऽस्ति तपसो विना ॥ ५१ ॥ इति शोकातुरा साध्वी तपसे निश्चिकाय सा । श्रौचित्येन विना सौख्यं न होच्छन्ति कुलोद्भवाः ॥५२॥ इति निश्चित्य सा वित्तं स्थिरीकृत्य विचक्षरणा । सरामं केशवं प्राप्य क्षरणमित्यब्रवीन्मिथः ||५३ || प्रसादालंकृतां प्रीति भवतो रतिदुर्लभाम् । प्राप्यापि मे मनः शोकं पैत्र्यं नालं व्यपोहितुम् ।।५४। निर्वाच्यं जीवितं श्रेयः सुखं चानुज्झितक्रमम् । खण्डनारहितं शौयं वैयं चाधेनिरासकम् ॥ ५५ ॥ रुदन्त्याः सततं शोकान्मम चक्षुरशिश्वियत् । वदनं चाशयानाया नष्टकान्तिकमश्वयीत् ।। ५६ ।। शोकसंतापिताच्चित्तात्क्वापि धैर्यमदुद्रुवत् । ग्रहासीन्मां च मातेव तातस्यानुपदं स्मृतिः ।। ५७ ।। सुमहानयशोमारो मयायं वोढुमल्पया । कथं वा पार्यते नार्या कुलक्षयसमुद्भवः || १८ || न जिह मि तथा लोकाद्भवद्द्भ्यां वा यथा परम् । प्रतिजन्यं सदाचारं बिभ्रारणाभ्यां विभूषरणम् ।। ५६ ।। कि त्रपाजननिर्वादो परिभूय कुलोद्भवाः । उत्तिष्ठन्ति गृहे तत्वं ज्ञात्वा विज्ञेयमञ्जसा ॥ ६० ॥
धन्य हैं, वे महापराक्रमी अथवा धैर्य शालिनी हैं और सचमुच ही वे कुल देवता हैं जिनका यौवन निन्दा के बिना व्यतीत होता है ॥ ४६ ॥ मैं निरन्तर जल रही हूँ अतः मेरे मन को सुख कैसे हो सकता है ? वास्तव में मन के संतुष्ट होने पर ही जीवों को सुख होता है ।। ५० ।। इसलिये दीक्षा लेना ही मेरे लिये कल्याणकारी है गृहस्थपन कल्याणकारी नहीं है । क्योंकि तप के विना कलङ्क धोने का दूसरा उपाय नहीं है ।। ५१ ।। इस प्रकार शोक से दुखी शीलवती कनकश्री ने तप के लिये निश्चय कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि कुलीन कन्याएं योग्य कार्य के विना अन्य कारणों से सुख की इच्छा नहीं करतीं ।। ५२ ।। ऐसा निश्चय कर तथा चित्त को स्थिर कर वह बुद्धिमती बलभद्र सहित नारायण के पास गयी और उसी क्षरण परस्पर इसप्रकार वचन कहने लगी ।। ५३ ।।
प्रसाद से सुशोभित तथा अतिशय दुर्लभ आप दोनों की प्रीति को प्राप्त कर भी मेरा मन पिता का शोक छोड़ने के लिये समर्थ नहीं है । । ५४ || निन्दा रहित जीवन, क्रमबद्ध सुख, अखण्ड शौर्य और मानसिक व्यथा को दूर करने वाला धैर्यं ही कल्याणकारी है ।। ५५ ।। मैं शोक से निरन्तर रोती रहती हूं अतः मेरी आँखें फूल गयी हैं और मैं सोती नहीं इसलिये मेरा मुख कान्ति रहित होकर सूज गया है ।। ५६ ।। मेरे शोक संतप्त चित्त से धैर्य कहीं चला गया है और पद पद पर आने वाली पिता की स्मृति माता के समान मुझे छोड़ नहीं रही है ।। ५७ ।। कुल के क्षय से उत्पन्न हुआ यह बहुत भारी अपयश का भार मुझ तुच्छ नारी के द्वारा कैसे ढोया जा सकता है ? ।। ५८ ।। मैं लोक से उस प्रकार लज्जित नहीं होती जिस प्रकार कि आभूषणस्वरूप लोकोत्तर सदाचार को धारण करने वाले आप दोनों से अत्यन्त लज्जित होती हूं ।। ५६ ।। क्या कुलीन पुरुष लज्जा और लोकापवाद की उपेक्षा कर
१ निन्दया २ संतुष्टे ३ पितृसम्बन्धि ४ मानसिकव्यथायाः ज्ञात्वापि ज्ञेय ब० ।
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