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________________ ६४ श्रीशान्तिनाथपुराणम् रिपुशस्त्रप्रतीघातश्यामिकालीढवक्षसम् । पुरीं प्राविशतामीशौ तौ हम्र्म्येषु निरन्तरम् । जयागमनयोः पौरैद्विगुणीकृतकेतनाम् ||३८|| ऐक्षन्तान्यमिवाशङ्कय ज्येष्ठेशं पौरयोषितः || ३६ || यथाप्रतिज्ञमेकेन "जितानेनारिवाहिनी I भुजद्वय सहायेन नायकाश्च निपातिताः ॥ ४० ॥ प्रयं चास्य प्रसादेन जातश्चक्रधरोऽनुजः । भूतो भावी च वंशेऽस्मिनीदृशो न हि सात्त्विकः ॥ ४१ ॥ इत्यात्मानं समुद्दिश्य जनानां वदतां गिरः । शृण्वन्समन्ततोऽप्यन्तजिह्राय स हलायुधः || ४२।। तावित्यात्मकथासक्तनागरैः परिवेष्टितौ । राज्ञां प्रविशतां नाथौ सोत्सवं राजमन्दिरम् ||४३|| निर्वाह्निक पूजां जिनेन्द्रस्य ततः पुरा । चक्रमानर्चतुः पश्चात्तौ मुदा रामकेशवो ॥४४॥ तत्कालोपनताशेषसुरराजन्यखेचराः I सेवमाना निराचस्तयोदिग्विजयोद्यमम् ||४५|| श्रन्यदा कौतुकारम्भं परिवाराङ्गनामुखात् । कनकश्रीः समाकर्ण्य प्रदध्याविति तत्क्षरणम् ।। ४६ ।। तादृशस्य पितुर्वशः कौलीनं च जनातिगम् । न क्षाल्येते गृहे स्थित्वा मुच्यमानंर्मयाशुमिः || ४७॥ ऊरीकृत्य दशां कष्टां प्रपद्ये यदि कौतुकम् । न जनोऽपि दुराचारां मां तृणायापि मन्यते ॥ ४८ ॥ सैनिकों के साथ उन दोनों भाइयों को देखा ||३७|| विजय और आगमन के उपलक्ष्य में जिसके महलों पर नगर वासियों ने निरन्तर दूनी पताकाएं फहरायी थीं ऐसी नगरी में उन दोनों राजाओं ने प्रवेश किया ||३८|| शत्रु के शस्त्रों की चोट से उत्पन्न कालिमा से जिनका वक्षस्थल व्याप्त था ऐसे बड़े राजा अपराजित को नगर की स्त्रियों ने मानों 'यह कोई अन्य है' ऐसी प्राशङ्का कर देखा था ।। ३६ ।। दोनों भुजाएं ही जिसकी सहायक हैं ऐसे इस एक ने प्रतिज्ञानुसार शत्रु की सेना जीती और नायकों को मार गिराया ||४०|| और यह छोटा भाई अनन्तवीर्य इसके प्रसाद से चक्रधर हो गया है। इस वंश में ऐसा पराक्रमी न हुआ है न होगा ॥। ४१॥ | इस प्रकार सभी ओर अपने आपको लक्ष्य कर कहते हुए मनुष्यों के शब्द सुनता हुआ बलभद्र - अपराजित अन्तरङ्ग में लज्जित हो रहा था ।। ४२ ।। इस प्रकार अपनी कथा में लीन नगरबासियों के द्वारा घिरे हुए राजाधिराजों ने उत्सव से परिपूर्ण राज महल में प्रवेश किया ||४३|| तदनन्तर उन बलभद्र और नारायण ने पहले जिनेन्द्र भगवान् की अष्टाह्निक पूजा की पश्चात् हर्ष पूर्वक चक्र की पूजा की ||४४ || तत्काल उपस्थित होकर सेवा करने वाले देव, राजा तथा विद्याधरों ने उनके दिग्विजय का उद्योग निराकृत कर दिया था । भावार्थ — उनकी प्रभुता देख देव, राजा तथा विद्याधर स्वयं आकर सेवा करने लगे थे इसलिये उन्हें दिग्विजय के लिये नहीं जाना पड़ा ।। ४५ ।। अन्य समय परिवार की स्त्री के मुख से विवाह सम्बन्धी प्रारम्भ को सुनकर कनकश्री तत्काल ऐसा विचार करने लगी ||४६ || वैसे पिता का वंश और लोकोत्तर निन्दा ये दोनों घर में रह कर मेरे द्वारा छोड़े जाने वाले प्रांसुत्रों से नहीं धोये जा सकते ||४७|| कष्ट पूर्ण दशा को स्वीकृत कर यदि मैं विवाह को प्राप्त होती हूं तो लोग भी मुझ दुराचारिणी को तृरण भी नहीं समझेंगे || ४८ ॥ | वे स्त्रियाँ १ शत्रुसेना २ लज्जितो बभूव ३ बलभद्रनारायणौ ४ लोकोत्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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