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________________ षष्ठ सर्ग। पुत्रः कनकपुखस्य वसतः शिवमन्दिरे । जयदेव्यामहं 'ज्यायानाम्ना कीर्तिधरोऽभवम् ॥२७॥ ततः पवनवेगायां दमितारि महाजिजित् । दधतो मे क्रमाद्राज्यं प्राज्यं ज्यायानभूत्सुतः॥२८।। श्रियं निविश्य तत्रोवौं तपो घोरमशिश्रियम् । नत्वा शान्तिकरं नाम्ना शान्तमोहं तपोधनम् ।।२।। स्थित्वा संवत्सरं सम्यकप्रतिमा ध्यानवह्निना। धात्तिदारूणि दग्ध्वाहममूवं केवली क्रमात् ।।३०।। तज्जुगुप्साफलेनेवं बन्धुदुःखं त्वमन्वभूः । असह्य नरकावासशोककल्पमकल्पना ।।३१।। इत्युदीर्य जिने तस्मिन्विरते तद्भवान्तरम् । तं प्रणम्य विमानं स्वं जग्मतुस्तौ तया समम् ।।३२॥ प्राहिषातां तमारुह्य तां चादाय नृपाधिपौ। जिनवाक्य हृदि न्यस्य स्वां पुरी "सुरवर्मना ॥३३॥ विद्य इंष्टसुदंष्ट्राम्यामंक्षिषातां वृतां पुरीम् । चित्रसेनेन सेनान्या पाल्यमानां समन्ततः ॥३४॥ जघानानन्तवीर्यस्तो क्रुधा दीप्तौ रिपोः सुतौ। मा वधोतिरावेतौ ममेत्युक्तेऽपि कन्यया ॥३५॥ रिपुरोधव्यपायेन नगरी व्यरुचत्तराम् । सुप्रसन्ना घनोन्मुक्ता नक्तं द्यौरिव 'शारदी ॥३६॥ तावक्षन्त ततः पौरा विस्मित्य सह सैनिकः । गीर्वाणा इव भूमिस्था निनिमेषक्षरणा: क्षणम् ॥३७।। शिव मन्दिर नगर में रहने वाले कनकपुङ्ख राजा की जयदेवी नामक पत्नी में मैं कीर्तिधर नामका बड़ा पुत्र हुआ ॥२७॥ तदनन्तर श्रेष्ठ राज्य को धारण करने वाले मेरे, मेरी पवनवेगा रानी में महायुद्धों को जीतने वाला दमितारि नामका बड़ा पुत्र हुआ ।।२८।। उस पर विशाल लक्ष्मी को सौंप कर मैंने शान्ति करने वाले शान्तमोह नामक मुनिराज को नमस्कार किया और नमस्कार कर कठिन तप ले लिया। भावार्थ-शान्तमोह नामक मुनिराज के पास दैगम्बरी दीक्षा ले ली ॥२६॥ एक वर्ष तक प्रतिमा योग से खड़े रहकर तथा ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी लकड़ियों को भस्म कर मैं कम से केवली हुआ हूं ॥३०।। तुमने श्रीदत्ता के भव में सुव्रता आर्यिका के साथ जो ग्लानि की थी उसके फल से यह नरक निवास के तुल्य असहनीय बन्धुजनों का दुःख सहन किया है। इस दुःख की तुझे कल्पना भी नहीं थी ॥३१॥ इस प्रकार कनकश्री के भवान्तर कहकर जब केवली भगवान् रुक गये तब अपराजित और अनन्तवीर्य उन्हें प्रणाम कर कनकश्री के साथ अपने विमान में चले गये ॥३२।। विमान पर चढ़कर तथा कनकश्री को लेकर दोनों राजा केवली भगवान् के वचन हृदय में रखते हुए आकाश मार्ग से अपनी नगरी की ओर चल दिये ।।३३।। वहाँ जाकर उन्होंने जो विद्यु दंष्ट्र और सुदंष्ट्र के द्वारा घिरी हुई है तथा चित्रसेन सेनापति सब ओर से जिसकी रक्षा कर रहा है ऐसी अपनी नगरी देखी ॥३४॥ 'मेरे इन भाइयों को मत मारो' इस प्रकार कन्या के कहने पर भी अनन्तवीर्य ने क्रोध से प्रदीप्त शत्रु के पुत्रों को मार डाला ।।३५।। शत्रु का घेरा नष्ट हो जाने से वह नगरी मेघ से रहित, अत्यन्त निर्मल शरद् ऋतु के आकार अत्यधिक सुशोभित होने लगी ॥३६।। तदनन्तर जिनके नेत्र टिमकार से रहित हैं तथा जो क्षणभर के लिये पृथिवी पर स्थित देवों के समान जान पड़ते हैं ऐसे नगर वासियों ने आश्चर्यचकित होकर १ ज्येष्ठ: २ महायुद्धविजेता ३ बेष्ठम् ४ अगच्छताम् ५ आकाशेन ६ शरद इयं शारदी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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