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________________ श्रीशान्तिनाथपुराणम् ताभिः कदर्यमानापि षड्भिम्त्वं च पृथक् पृथक् । व्यसनस्थितितुल्याभिरहासीनं च धीरताम् ॥१८॥ शङ्खपर्वतमम्यरर्णमयासोस्त्वं 'फलेपहिः । अनुवर्तयितुं तासा मिच्छा प्रसरमन्यदा ॥१६॥ फलान्युच्चित्य 'हबानि त्वयाथ विनिवृत्तया । दृष्टः सर्वयशास्तत्र धर्म शासन्यतिर्नरान् ॥२०॥ त्वं धर्मचक्रवालाल्पमुपवास तपोधनात । व्रतानि च यथाशक्त्या गृहीत्वागास्ततो गृहम् ॥२१॥ त्रिसप्तरात्रनित्यं वृद्ध कोत्तरया युतम् । तदुपोष्य कृशाऽभूस्त्वं वपुषा न च चेतसा ॥२२॥ अन्यदा सुव्रतामायाँ भोजयिस्वाथ सुव्रताम् । जुगुप्सां त्वं तदुद्गारे व्यवधा महतीं मुहुः ॥२३॥ प्रसूता संगमेनोच्चैः प्रियस्य खचरी 'नगे । सुरूपामेकदालोक्य निदानमकृषा वृषा ॥२४॥ मृत्वा विधु प्रमा नाम देवी विद्युत्प्रभाकृतिः । प्रजायथास्ततो धर्मात्सौधर्मे शक्रवल्लमा ॥२५॥ ततश्च्युत्वा निदानेन दमिताररभूत्प्रिया । पर्व चक्रभृतः पुत्री 'मन्दिरायामनिन्दिता ॥२६॥ भरणपोषण की आकुलता रखती थी। तुझे अपना पेट भरने का ध्यान नहीं रहता था और विना किसी व्यग्रता के गृह कार्य में तत्पर रहती थी॥१७॥ कष्टपूर्णस्थिति के कारण जो समान थीं अर्थात् एक समान दुखी थीं ऐसी वे छहों बहिनें तुझे पृथक पृथक् पीड़ित करती थीं-खोटे वचन कहती थीं फिर भी तू धीरता को नहीं छोड़ती थी ।१८।। एक समय तू उनकी इच्छात्रों के समूह को पूर्ण करने के लिये फल तोड़ती हुई शङ्खपर्वत के निकट जा पहुंची ।।१६।। मनोहर फल तोड़ कर जब तु लौट रही थी तब तुने वहां मनुष्यों को धर्म का उपदेश देते हुए सर्वयश नामक मुनिराज देखे ।।२०।। तू उन तपस्वी मुनिराज से धर्मचक्रवाल नाम का उपवास तथा शक्ति के अनुसार व्रत लेकर वहां से घर आयी ॥२१।। जो एक एक उपवास की वृद्धि से सहित है तथा इक्कीस दिन में पूर्ण होता है ऐसे धर्मचक्रवाल नाम का उपवास कर तू शरीर से तो कृश हो गयी थी पर मन से कृश नहीं हुई थी। भावार्थ-धर्मचक्रवाल उपवास में एक उपवास एक आहार, दो उपवास एक आहार, तीन उपवास एक आहार, चार उपवास एक आहार, पाँच उपवास एक आहार और छह उपवास एक आहार इस प्रकार उपवास के २१ दिन होते हैं । इस कठिन उपवास के करने से यद्यपि श्रीदत्ता का शरीर कृश हो गया था तो भी मन का उत्साह कृश नहीं हुआ था ॥२२॥ किसी समय तूने उत्तम व्रतों को धारण करने वाली सुव्रता नामकी आर्यिका को आहार कराया। आहार करने के बाद उन्हें वमन हो गया। उस वमन में तूने बार बार बहुत ग्लानि की ॥२३।। एक समय तूने पति के समागम से पर्वत पर प्रसव करने वाली सुन्दर विद्याधरी को देखकर व्यर्थ ही निदान किया था ।।२४।। तदनन्तर मर कर तू धर्म के प्रभाव से सौधर्मस्वर्ग में विजली के समान कान्ति वाली विद्य त्प्रभा नामकी देवी हुई तथा इन्द्र की वल्लभा-प्रिय देवाङ्गना हुई ॥२५॥ वहाँ से चय कर निदान बन्ध के कारण अर्धचक्रवर्ती दमितारि की मन्दिरा नाम की उत्तम प्रिय पुत्री हुई ।।२६।। १ फल ग्रहेणतत्परा २ हृदयस्य प्रियाणि हृद्यानि-मनोहराणि, ३ सुव्रतानामधेयाम् शोभनव्रतसहिताम् ४ विद्याधरीम् । पर्वते ६ मन्दिरानामराज्याम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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