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________________ षष्ठ सर्ग: दिदृशुस्तद्गतिध्वंसहेतु तस्मादवातरत । अपश्यच्च महासत्त्वः स भूतरमणाटवीम् ॥७॥ ऐक्षिष्ट - मुनि 'तस्यामधिकाञ्चनपर्वतम् । तत्क्षणादघातिताशेषघातिकमजयोन्नतम् ॥६॥ मस्या विमानमानीय भ्रातरं सह कन्यया । वन्दारस्तं ववन्देऽसौ तौ च केवलिनं मुदा ॥६॥ चामरद्वितधाशोकसिंहासमसमन्वितम् । 'देदीप्यमानभामूति बोधकच्छत्रमासुरम् ॥१०॥ मन्दारप्रसवाम्भक्त्या परिकार्य चतुर्विधः । सेव्यमानं सुरैः प्रभव्यत्वप्रेरितैरिव ॥११।। कनकधीस्तमीशानं पत्रच्छात्मभवान्तरम् । प्रत्यग्रपितृशोकार्ता स चेत्यूचे मुनीश्वरः ।।१२।। अस्ति द्वीपो द्वितीयोऽसौ घातकोतिलकाङ्कितः । तत्प्राच्यरावते चास्ति ग्रामः शङ्खपुराभिधः ।।१३।। ४कुटुम्बी देषको नाम तत्रासीत्तस्य च प्रिया । पृथुश्रीरिति नाम्नैव न च पुण्येन भूयसा ॥१४॥ आसन्दुहितरः सप्त तयो तिसमृद्धयोः । संतप्यमानमनसोः "सुपुत्रालाभवह्निना ॥१५।। काणा खजा कुणिः पङ गुः कुष्ठिनी कुब्जिका परा। तासु त्वमक्षतकासी: श्रीदत्ताख्याच 'पूर्वजा॥१६॥ लोकान्तरितयोः पित्रोस्तासां त्वं भरणाकुमा । अनात्मभरिरव्यग्रा गृहकर्मपराऽभवः ॥१७॥ क्रमी अपराजित विमान की गति के नष्ट होने का कारण देखने की इच्छा से जब वह विमान से नीचे उतरा तो उसने भूतरमण नाम की अटवी देखी ॥७॥ वहां उसने काञ्चन गिरि पर्वत पर उसी समय समस्त घातिया कर्मों का क्षय करने से महिमा को प्राप्त मुनि को देखा ।।८।। उन्हें देख वह विमान में वापिस गया और कन्या के साथ भाई को ले आया। पश्चात् वन्दनाप्रिय अपराजित तथा अनन्तवीर्य और कनकश्री ने हर्ष पूर्वक केवलीभगवान् को नमस्कार किया ।।६।। ___ जो चामरयुगल, अशोक वृक्ष और सिंहासन से सहित थे जिनका भामण्डल देदीप्यमान था, जो सफेद वर्ण के एक क्षत्र से सुशोभित थे और भव्यत्वभाव से प्रेरित चार प्रकार के नम्रीभूत देव भक्ति द्वारा कल्पवृक्ष के फूलों की वर्षा कर जिनकी सेवा कर रहे थे ऐसे उन केवली भगवान् से पिता के नवीन शोक से दुखी कनकश्री ने अपने भवान्तर पूछे और मुनिराज उसके भवान्तर इस प्रकार कहने लगे ॥१०-१२॥ वह जो धातकी तिलक नाम का दूसरा द्वीप है उसकी पूर्व दिशा सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्र में एक शङ्खपुर नामका ग्राम है ।।१३।। वहाँ एक देवक नामका गृहस्थ रहता था। उसकी स्त्री का नाम पृथुश्री था । वह नाम से ही पृथुश्री थी, बहुतभारी पुण्य से पृथुश्री-अत्यधिक लक्ष्मीवाली नहीं थी ।।१४।। वे दोनों अधिक सम्पन्न नहीं थे, साथ ही सुपुत्र के न होने से उसके अलाभरूपी अग्नि से उनका मन संतप्त रहता था । कालक्रम से उनके सात पुत्रियां हुई । जो कानी, लंगड़ी, टूटे हाथ वाली, पङ गु, कुष्ठरोग से युक्त तथा कुबड़ी थीं। उन सब पुत्रियों में बड़ी तथा पूर्ण अङ्गों वाली तू ही एक थी और तेरा नाम श्रीदत्ता था ॥१५-१६।। माता पिता का मरण हो जाने पर तू ही उन सबके १ काञ्चनपर्वते इति अधिकाञ्चनपर्वतम् २ भासमानभामण्डलम् ३ शुक्ल ४ गृहस्थ: ५ सुपुत्रस्य अलाभ एव वह्निस्तेन ६ ज्येष्ठा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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