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________________ श्रीशान्तिनाथपुराणम् तयोः समतया युद्ध स पश्यन्नपराजितः । महानुभावतां स्वस्य प्रथयामास तत्क्षणात् ॥१.३॥ सवंशप्रभवाच्चापास निरासे शरैर्गुणम् । प्रभग्नपूर्वाद्विततं दमितारेन विक्रमम् ॥१०॥ धनुविहाय स क्षिप्र कलत्रमिव 'निर्गुणम् । बोक्षमाणः कटाक्षेण चक्रमित्यं बमब्रवीत् ॥१०॥ मिवर्तस्व रणाद्रं त्वं मा भूः शलभो वृथा । अदृष्टसंयुगान्बालान्नाहं हन्मि भवादृशान् ॥१०६॥ अपराजितसांनिध्यात्कि मुषा सुभटायसे । विमानं बज तत्रास्व न योग्योऽसि रणाङ्ग ॥१०७।। इत्युक्त्वावसिते वाणी चक्रिरिण क्रुद्ध मानस: । चापं मित्रमिवालम्ब्य तमित्यूचे नृपात्मनः ॥१०८।। प्रायुधैः संप्रहारेऽस्मिन् गिरामवसरः कुतः । सिंहशावो हत: कश्चित्प्रौढेनापि न दन्तिना ॥१०९।। विश्रान्तश्चेद्गृहारणास्त्रं को हन्याद्य द्धखेदितम् । भनज्मि तावदेवते किं चक्रं निशितैः शरैः॥११०॥ इति तेनेरितां वारणी दृप्तामाकर्ण्य स क्रुधा । चक्रमाज्ञापयामास दमितारिररि प्रति ॥११॥ तद्गत्वानन्तवीर्यस्य दक्षिणांसं समुन्नतम् । प्रलंचके तदा चक्र स्वांशुचक्रेण भूयसा ॥११२।। कर दिया ॥१०२। उन दोनों—अनन्तवीर्य और दमितारि के युद्ध को समता से देखते हुए अपराजित ने उसी क्षण अपनी महानुभावता को प्रकट कर दिया था ।।१०३।। अनन्तवीर्य ने वारणों के द्वारा दमितारि के समीचीन वांस से निर्मित तथा पहले कभी खण्डित नहीं होने वाले धनुष से डोरी को अलग कर दिया परन्तु उसके विस्तृत पराक्रम को अलग नहीं किया। भावार्थ---यद्यपि अनन्तवीर्य ने वाण चला कर दमितारि के धनुष की डोरी को खण्डित कर दिया था तो भी उसका रणोत्साह खण्डित नहीं हुआ था ।।१०४।। दमितारि निर्गुण-शीलादि गुण रहित स्त्री के समान निर्गुण-डोरी रहित धनुष को शीघ्र ही छोड़ कर कटाक्ष से चक्र की ओर देखता हुअा अनन्तवीर्य से इस प्रकार बोला ॥१०॥ तू युद्ध से दूर लौट जा, व्यर्थ ही पतङ्ग मत बन, जिन्होंने युद्ध देखा नहीं है ऐसे तुझ जैसे बालकों को मैं नहीं मारता ॥१०६।। अपराजित के निकट रहने से तू व्यर्थ ही सुभट के समान आचरण कर रहा है, विमान में जा और उसी में बैठ, तूरणाङ्गरण के योग्य नहीं है ।।१०७॥ इस प्रकार की वाणी कह कर जब चक्रवर्ती चुप हो गया तब कुपित हृदय अनन्तवीर्य मित्र के समान धनुष का पालम्बन लेकर उससे इस प्रकार बोला ।।१०८।। हथियारों के द्वारा होने वाले इस युद्ध में वचनों का अवसर कहाँ है ? क्या हाथी ने प्रौढ़ होने पर भी किसी सिंह के बच्चे को मारा है ? ॥१०६।। यदि विश्राम कर चुके हो तो शस्त्र उठायो । युद्ध से खिन्न मनुष्य को कौन मारता है ? मैं तीक्ष्ण वाणों के द्वारा क्या तुम्हारे इस चक्र को तोड़ दू? ॥११०।। इस प्रकार अनन्तवीर्य के द्वारा कही हुई अहङ्कार पूर्ण वाणी को सुन कर उस दमितारि ने क्रोधवश शत्रु के प्रति चक्र को आज्ञा दे दी ॥१११।। प्राज्ञाकाल में ही वह चक्र जाकर अपनी बहुत भारी किरणों के समूह से अनन्तवीर्य के ऊँचे दाहिने कन्धे को अलंकृत करने १ प्रत्यञ्चारहितं पक्षे दयादाक्षिण्यादिगुणरहितम् २ अनवलोकितयुद्धान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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