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पंचम सर्ग:
स्वेवापनयनव्याजमुपदिश्य तनुच्छदम् । स्वयमुन्मोचयन्नम्यविमुक्तग्रन्थिबन्धनम् ॥३॥ अक्षतविरः कैश्चिद्वष्टचमानो महाभटः । तत्कालेऽप्यविमुञ्चद्भिः पुण्यैरिव पुरातनः ॥१४॥ लक्ष्यमाणोऽरिणा 'दूरावरिणेव जिघांसुना । अभिशत्रु शररित्थं प्रतस्थे खेचरेश्वरः ॥६५|
[षड्भिः कुलकम् ] स किश्चिदन्तरं गत्वा तमै क्षष्ट सहानुजम् । अयं स इति सूतेन प्राजनेन निवेवितम् ॥६६॥ ततः सज्यं धनुः कृत्वा रयान्त पुजिताम शरान् । विविच्यावाय स क्षिप्रं क्षेप्तुमित्थं प्रचक्रमे १६७।। पुरा निर्भत्स्यं तो वाचा पश्चात्संघाय सायकम् । प्राकरणं अनुराकृष्य विव्याध स्थिरमुष्टिकः ॥६॥ अलक्ष्यमारणसंधानमोक्षांस्तस्याप्रत: शरान् । न वाचाट इवात्याक्षीत्करर्णमूलं धनुर्गुणः ॥६॥ प्रलेऽनन्तवीर्येण ततो भ्रातुरनुज्ञया । यो वेलोद्गमेनेव प्रलयक्षुभितोदधेः ॥१०॥ पाककृष्टचापेन वेगासेन शरावलिः । प्रासे पूर्वापरे मुष्टी निविडीकृत्य संततम् ॥१.१॥ अनेकशरसंघातैः पिधाय निखिला दिशः । युध्यमानावकाष्टी तौ सृष्टि शरमयीमिव ॥१.२॥
तुम लोग बैठो बैठो-साथ आने की आवश्यकता नहीं है ।।१२।। पसीना पोंछने का बहाना लेकर वह उस कवच को जिसकी कि गांठों के बन्धन दूसरे लोगों ने छोड़े थे, स्वयं खोल रहा था ।।१३।। जा अक्षत थे-जिन्हें कोई चोट नहीं लगी थी, जो रथ से रहित थे—पैदल चल रहे थे और जिन्होंने पूर्व पुण्य के समान उस समय भी साथ नहीं छोड़ा था ऐसे कुछ महान् योद्धा उसे घेरे हुए थे—उसके साथ साथ चल रहे थे ।।१४।। चक्ररान के समान घात करने की इच्छा करने वाला शत्रु जिसे दूर से ही देख रहा था ऐसा विद्याधरों का राजा दमितारि वारण वर्षा करता हा शत्रु के सम्मुख जा रहा था॥१५॥
उसने कुछ दूर जाकर छोटे भाई सहित अपराजित को देखा । 'यह वह है' इस प्रकार सारथि ने हकनी से उसका संकेत किया था ।।१६।। तदनन्तर धनुष को प्रत्यञ्चा से युक्त कर उसने रथ के भीतर एकत्रित वाणों को अलग अलग ग्रहण किया और पश्चात् इस प्रकार छोड़ना शुरू किया ॥६७।। पहले तो उसने दोनों भाईयों को वचन से डांटा, पश्चात् कान तक धनुष खींच कर और उस पर वाण चढ़ा कर मजबूत मुट्ठी से मारना शुरू किया ॥६८।। जिनके संधान-धारण करने और मोक्ष-छोड़ने का पता नहीं चलता ऐसे वारणों को धनुष की डोरी ने आगे छोड़ दिया परन्तु वाचाल मनुष्य के समान उसने दमितारि के कर्णभूल को नहीं छोड़ा। भावार्थ-जिस प्रकार वाचाट-चापलस मनुष्य सदा कान के पास लगा रहता है उसी प्रकार धनुष की डोरी भी सदा उसके कान के पास लगी रहती थी अर्थात् वह सदा डोरो खोंच कर वाण छोड़ता रहता था ॥१६॥
___ तदनन्तर प्रलय काल के क्षुभित समुद्र के ज्वारभाटा के समान अनन्तवीर्य, भाई की आज्ञा से युद्ध के लिये चला ॥१०॥ जिसने कान तक धनुष खींच रक्खा था ऐसे अनन्तवीर्य ने आगे पीछे की मुट्ठियों को मजबूत कर निरन्तर बड़े बेग से वारणसमूह को छोड़ना शुरू किया ॥१०१।। युद्ध करते हुए उन दोनों ने अनेक वाणों के समूह से समस्त दिशाओं को आच्छादित कर सृष्टि को वारणों से तन्मय
१ चक्रेणेव २ हन्तुमुत्सुकेन ३ प्रतोदकेन ४ बहुगो वाक् ५ प्रक्षिप्ता ।
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