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________________ पंचम सर्गः ५६ ततः खड्गं समादाय दमितारिः समुद्ययौ । प्रतिज्ञाय पुराचक्रं पातयामीति दर्पितः । ११३ ॥ इत्यभ्यापततस्तस्य स चिच्छेद शिरो रिपोः । चक्रेण तत्क्षरगाद्द्बद्ध भ्रकुटीभीषरगालिकम् ' ॥११४॥ स्वस्वामिनिधनात्क्रुद्धं रुद्धतेरात्मविक्रमात् । तत्रैव चक्रधाराग्नी सुभर्टः शलमायितम् ॥ ११५ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् इत्येवं दमितारिमानतरिपुं हत्वा स चक्राधिपं बिभ्राणः स्फुरवंशुजालजटिलं चक्रं नभः श्यामलम् । विस्मित्य क्षरणमप्रजेन ददृशे तेन स्वमभ्यापतन् संचारीव तदञ्जनाद्रिरुपरि व्यासक्ततिग्म' तिः ॥ ११६ ॥ गत्वा संगर' सागरस्य महतः पारं परं तत्क्षरणा लक्ष्मीमुत्तमसाहस प्रणयिनीं चारोप्य स स्वानुजे । सौहार्दादिपराजितो भुजबलाच्चान्वर्थनामेत्य भूत् पूजासंपदकारि तत्र च तयोर्विद्यामि रत्यादरात् ||११७|| इत्यसगकृतौ शान्तिपुराणे श्रीमदपराजितविजयो नाम * पंचमः सर्गः * लगा ।। ११२ ।। तब अहङ्कार से भरा दमितारि 'मैं पहले चक्र को गिराता हूं ऐसी प्रतिज्ञा कर तलवार ले आगे बढ़ा ।। ११३ ।। इस प्रकार सम्मुख आते हुए दमितारि के उस शिर को जिसका ललाट चढ़ी हुई भौंह से भयंकर था, अनन्तवीर्य ने तत्काल चक्र से छेद दिया ।। ११४ ।। अपने स्वामी की मृत्यु से क्रुद्ध उद्दण्ड सुभटों ने यद्यपि अपना पराक्रम दिखाया परन्तु वे उस चक्ररत्न की धारारूपी अग्नि में पतङ्ग के समान जल मरे । भावार्थ - जिन अन्य सुभटों ने पराक्रम दिखाया वे भी उसी चक्ररत्न से मारे गये ।। ११५ ।। इस प्रकार चक्ररत्न के स्वामी, उपस्थित शत्रु - दमितारि को मार कर देदीप्यमान किरणों के समूह से जटिल तथा आकाश के समान श्यामल चक्ररत्न को धारण करने वाला अनन्तवीर्य जब अपने सामने आया तो बड़े भाई अपराजित ने क्षणभर आश्चर्य चकित हो उसे चलते फिरते उस अनगिरि के समान देखा जिसके ऊपर सूर्य संलग्न है ।। ११६ । । बहुत बड़े प्रतिज्ञा रूपी समुद्र के द्वितीय पार को प्राप्त कर अपराजित ने उसी क्षरण स्नेह के कारण उत्तम साहस से स्नेह रखने वाली लक्ष्मी छोटे भाई अनन्तवीर्य के लिये सौंप दी और स्वयं बाहुबल से 'अपराजित' इस सार्थक नाम के धारक हुए । विद्याओं ने उसी रणभूमि में बड़े आदर से उन दोनों की पूजा प्रतिष्ठा की ।। ११७ ।। इस प्रकार महा कवि असग द्वारा विरचित शान्तिपुराण में अपराजित की विजय का वर्णन करने वाला पञ्चम सर्ग समाप्त हुआ । १ ललाटं २ सूर्य ३ प्रतिज्ञापयोघे रित्यादरात् ब० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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