________________
आचार्यश्रीवर्धमानसूरिरचिते स्वोपज्ञटीकासहिते धर्मरत्नकरण्डके
शुभैः प्रशस्तै: सुगन्धिभि: सुरभिभि: पुष्पैः कुसुमैर्य: कश्चिदनिर्दिष्टनामा कुरुते विधत्ते जिनार्चनं जिनपूजनं सोऽसौ प्राप्नोति लभते समं सह कीा ख्यात्या रत्नचन्द्र इव रत्नचन्द्राभिधानराजपुत्रवत् श्रिय: ? [सम्पदः] इति प्रथमश्लोकार्थः ।।५०॥
पुटपाकादिभिरनेकप्रकारप्रधानसुगन्धद्रव्याग्निपाकादिभिर्गन्धैर्वासैर्ये केचनार्चयन्ति पूजयन्ति जिनेश्वरं [वीतरागं] लभन्ते प्राप्नुवन्ति तेऽचिरात् स्तोककालेन सिद्धिं मुक्तिं रत्नसुन्दरवत् रत्नसुन्दराख्यराजसूनुरिव जना लोका इति द्वितीयश्लोकार्थः ॥५१॥
धूपं प्रतीतं दहत्युद्ग्राहयति य : कश्चित्सारं सारद्रव्यनिष्पन्नं प्रधानमित्यर्थः, भावसारमन्त:करणप्रधानं जिनाग्रतो जिनपुरत:सोऽसौ यातिगच्छतिलब्धसर्वर्द्धि: प्राप्ताशेषसमृद्धिर्नरकेसरिवत् नरकेसरिनामनृपनन्दन इव शिवम् मोक्षमिति तृतीयश्लोकार्थः ॥५२॥
प्रदीपयति प्रज्वालयति य : कश्चिद् भक्त्या भावेन प्रदीपं दीपं जिनमन्दिरे जिनगृहे सो ऽसौ हि पूरणे स्याद् भवेद् अखिलश्रीणां समस्तलक्ष्मीनां भानुप्रभ इव भानुप्रभाभिधाननृपात्मज इव प्रभु यको भवेदिति चतुर्थश्लोकार्थः ॥५३॥
१ सूत्रकृताङ्ग की टीकामें आचार्य श्रीशीलांक लिखते है : गन्धा: कोष्ठपुटपाकादय: अर्थात् संपुट में रखकर चन्दनचूर्ण आदिको पकाने से वे कोष्ठपुटपाक गंध बनते है।
...पिण्डनियुक्तिकी टीकामें आचार्य श्री मलयगिरिजी ने गन्ध शब्दका अर्थ पटवास आदि किया है: गन्धा पटवासादयः अर्थात् पटवास आदि को गन्ध कहते है। सामान्य रूपसे पटवास पूर्वकालसे आजतक बढिया कीमती वस्त्रों में डालनेकी सुगन्धि है, तथापि मलयगिरिजी के उपर्युक्त उल्लेख से जाना जाता है कि मध्यकालमें पुटपाक गन्धों के अतिरिक्त पटवासभी देवोंकी पूजामें चढाया जाता होगा.
वासकी व्याख्या करते हुए आप (प्रश्नव्याकरणटीकामें आ. अभयदेवसूरि) लिखते है: वरचूर्णरूपावासास्ताडिता: अर्थात् उखली
आदिमें चन्दन-कर्पूर आदि पदार्थों को कूटकर बनाया हुआ। सफेद चूर्ण वास नामसे प्रसिद्ध है। [श्री जिनपूजाविधिसंग्रह ले. पं. कल्याणविश्रयजी म. टि पृ. ३८-३९]
प्रतिष्ठाकल्यो में वासा: श्वेतवर्णाः ऐसा विधान है, तब गंधके लिए वासा एव ईषद् कृष्णा गन्धा: इस प्रकार लक्षण बताया है। गंध-चंदन अगरु, कस्तूरी, बरास, शिलारस आदि सुगंधित पदार्थो के मिश्रण से बनता है और उसको पुटपाकबनाने से वह अधिक सुगन्ध छोडता है। जिनपूजा विधि संग्रह पृ.५२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org