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अधिकार १७ / श्लोक ३११-३२३ / भोगदेवकथा
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होऊण अहुंतीए, लच्छीए माणमलणदच्छिए । सिरिदेवो सयलजणे, विडंविओ णेगहा काउं ॥१८३॥ अन्भत्थिया न थक्कइ, सोयं न गणेइ सेवइ दायारं । रूसइ रक्खिजंती, छिंडणमहिला य लच्छी य ॥१८४॥ -~अणुकूलं चिय भुंजइ, मइमं न करेइ गरुयपडिबंधं ।
परपुरिसासत्तमणं, मुच्चइ लच्छिं च महिलं च ॥१८५॥ रक्खंतस्स विरुद्धा, संचयसीलस्स भोगदेवस्स । दितस्स अभोगपरा-यणस्स वि परंमुहा जाया ॥१८६॥ जो संतं वि न भुंजइ, न देइ उक्खणइ निहणइ ससंको। सो संचयसीलसमो, हवंति दालिद्दिओ पुरिसो ॥१८७॥ संचयसीलसरिच्छा पुरिसा महिमंडलम्मि सव्वत्तो। जे छलिया लच्छीपिसा-इयाए करिकन्नचंचलाए ॥१८८॥ जो संतं परिभुंजइ, देइ न दितस्स पडइ परिणामो। सो भोगदेवसरिसो, उभयभवसुहावहो पुरिसो॥१८९॥ ते विरला सप्पुरिसा, जयम्मि जे भोगदेवसारिच्छा। लच्छीए जे न छलिया, छलिया लच्छी पुणो जेहिं ॥१९॥ को मुणइ ताण संखं, नराण लच्छीए जे छलिज्जंति । संता वि जेहिं लच्छी, छलिया ते एक दो तिनि ॥१९॥ ता छडिजउ एसा, जाव न छड्डेइ अप्पणा चेव । लच्छीए छलिओ पुण, लहुत्तणं पावए पुरिसो ॥१९२॥
इति भोगदेवकथानकं समाप्तम्
[इति विवेकाधिकार:]]
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