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________________ हैं अथवा अनेक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से सम्पूर्ण लोक में व्यापकता है, ऐसा जानना चाहिये । वादर वण्णप्फदियो णिरयादि गदीसु जाद तसजीवा । अव्वावगा हु सव्वे पुग्गलदव्वो तहा दुविहो ||67|| अन्वय वादरवणफदियो णिरयादि गदीसु जाद तसजीवा हु सव्वे अव्वावगा तहा पुग्गलदव्वो दुविहो । अर्थ - बादर वनस्पतिकायिक जीव तथा नरकादि गतियों को लेकर जितने त्रस जीव हैं वे सभी निश्चय से अव्यापक हैं - अर्थात् सम्पूर्ण लोक में व्याप्त नहीं हैं तथा पुद्गल द्रव्य दोनों प्रकार का अर्थात् व्यापक और अव्यापक रूप है । जम्हा दु लोगपूरणकरणे खलु होई कम्मणक्खंडो । सो पुग्गलो हु लोगे संपुण्णो वावगो तत्तो ||68|| अन्वय जम्हा दु लोगपूरणकरणे कम्मणक्खंडो होई सो पुग्गलो लोगे संपुण्णो तत्तो वावगो । T अर्थ - जो लोक पूरण समुद्घात में कर्मों के खंड होते हैं । वे पुद्गल लोक में पूरित हो जाते हैं, इसलिए पुद्गल को व्यापक जानना चाहिये । अहवा परमाणूहिं अणंताणंतेहि संचिदो लोगो । तम्हा णाणापरमाणूणं पडिवावगो होई ||69|| अन्वय - अहवा अणंताणंतेहि परमाणूर्हि संचिदो लोगो तम्हा णाणापरमाणूणं पडिवावगो होई । अर्थ - अथवा अनंतानंत परमाणुओं के संचय से लोक बना है, इसलिए नाना परमाणुओं के प्रति व्यापक होता है । अव्वावग हु एगो अविभागी होइ सुहुमपरमाणू । अव्वत्तस्सत्तीदो केवलणाणव्व भव्वस्स |17011 ( 20 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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