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________________ सो पुग्गलो सजादि सहाओ जीवस्स पुग्गलो हु विजादि'। तह पुग्गलस्य जीवो धम्मचऊ होति हु सहावा ।।63|| अन्वय - सो पुग्गलो सजादि सहाओ जीवस्स पुग्गलो हु विजादि तह पुग्गलस्य जीवो धम्मचऊ हु सहावा होति । अर्थ - वह पुद्गल सजाति स्वभाव वाला है। जीव का पुद्गल विजाति है तथा पुद्गल का जीव विजाति है। धर्मादि चार अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल स्वभाव रूप ही परिणमन करते हैं। जो णियरूवं चत्ता पररूवे वट्टदे विहाओ सो । जो पररूवं मुच्चा णियरूवे वट्टदे सहाओ सो ।।64|| अन्वय - जो णियरूवं चत्ता पररूवे वट्टदे सो विहाओ जो पररूवं मुच्चा णियरूवे वट्टदे सो सहाओ। अर्थ- जो अपने स्परूप को छोड़कर पररूप से वर्तन करता है, वह विभाव है। जो पर रूप को छोड़कर निज स्वरूप में वर्तन करता है वह स्वभाव है। जो को वि सजोगिजिणो अघादिहणणत्थमेव णियमेण । दण्डकवाडं पदरं लोगं सह पूरणं कुणई 165।। सो चेव लोगपूरणकरणे खलु वावगोऽहवा णेयो । णाणा सुहमेइंदिय जीवाणि पडुच्च वावगो चेव ।।66|| अन्वय - जो को वि सजोगिजिणो णियमेण अघादिहणणत्थमेव दण्डकवाडं पदरं सह लोगं पूरणं कुणई सो लोगपूरणकरणे खलु वावगो अहवा णाणा सुहमेइंदिय जीवाणि पडुच्च वावगो चेव णेयो। अर्थ - जो कोई सयोगी केवली नियम से अघातियाकर्मों को नष्ट करने के लिए दण्ड, कवाट, प्रतर के साथ लोकपूरण समुद्धात करते हैं। वे ही लोक पूरण समुद्धात में निश्चय से सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते 63. (1) वीजादि ( 19 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
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